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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः चरंति तादृशादृष्टविशेषवशवर्तिनः। स्वभावाद्वा तथानादिनिधनाद्व्यरूपतः ॥ ६ ॥ सूर्य आदि विमानोंमें निवास कर रहे ज्योतिष्क देव तिस जातिके अदृष्टविशेषके पराधीन बर्त रहे सन्ते भ्रमण कर रहे हैं । अथवा अनादि, अनन्त द्रव्य रूपसे तिस प्रकारका स्वभाव होनेसे मनुष्य लोकमें वे विचरते रहते हैं तथा बाहर स्थित बने रहते हैं । परिशेषमें सबसे अच्छा सिद्धान्त यही है कि जीवन, मरण, चलना, ठहरना, पृथिवीकी स्थिरता, वायुकी चंचलता, गुरुपदार्थका अधःपतनस्वभाव, लोककी स्थिरता, आकाशकी व्यापकता, कालद्रव्यका अणुपरिमाण, जीवोंका चेतनत्व, पुद्गल द्रव्यका जडत्व, नरकोंमें दुःखोत्पादक कारणोंका सद्भाव, स्वर्गामें सुखोत्पादक सामग्री, मुक्ति अवस्थामें अनन्त सुख, ये व्यवस्थायें अनादिनिधन द्रव्यके निजगांठके स्वभावों अनुसार व्यवस्थित हैं । नृलोकमें ज्योतिषियोंका भ्रमण और नृलोकसे बाहर असंख्याते ज्योतिषियोंका वहांके वहीं बने रहना निजगांठकी परिणतियोंपर अवलम्बित है । भ्रमण और गमन दोनों के लिये कारणों का ढूंढना एकसा आवश्यक है । जीवन और मरण दोनों ही सकारण हैं । कार्यकारणभावके वेत्ता विद्वानोंके यहां उत्पाद, व्यय और स्थिति तीनोंको कारणजन्य माना गया है । ज्योतिष्कोंको भ्रमण करानेके लिये जितने शक्तिशालीकी आवश्यकता है उतना शक्तिशाली कारण उनको स्थिर रख सकता है । कचित् वह कारण बहिरंग भी होता है। किन्तु बहुभाग स्थलोंमें अन्तरंग ही कारण प्रधान माना गया है। धर्म, अधर्म, दोनों द्रव्योंकी शक्ति समान है उत्कट रौद्रध्यान और प्रकृष्ट शुक्लम्यानकी शक्ति तौलमें बरावर है । एक सातवें नरकमें पहुंचा देता है, दूसरा मोक्षमें धर देता है। ज्योतिष चक्रको ठहराये रखनेमें अल्पबल कारणसे कार्य होजाय और ज्योतिष चक्रका भ्रमण करानेमें महान् शक्तिशाली कारण उपयोगी होंय ऐसा चित्तमें नहीं धार लेना चाहिये । सवार, सामायिकी, वातवलय आदि करके घोडा, मन, लोक, शुक्र, अस्थि, स्वकीय पाठ आदिको एकाग्र धारे रखनेमें बडी शक्ति लगानी पड़ती है। अतः प्रकरणमें ज्योतिष्क विमानोंका परिभ्रमण अनादि निधन द्रव्यरूप स्वभावसे निर्णीत कर दिया है। यह समाधान बहुत बढिया रुचिकर है। सभी दार्शनिकों को इसी समाधानपर मस्तक झुकाना पडेगा। एष एव नभो भागो ज्योतिः संघातगोचरः। बहला सदशकं सौं योजनानां शतं स्मृतः ॥७॥ ज्योतिक विमानोंके या तत्सम्बन्धी देवों के समुदायका विषय हो रहा यह आकाश भाग ही सर्व दशसहित सौ योजनोंका मोटा सिद्धान्तज्ञ ऋषियों की परिपाटी अनुसार स्मरण किया जा रहा है। अर्थात्-यहां सम भागसे सात सौ नव्वे बडे योजन ऊपर चलकर ज्योतिष्फ चक्रका प्रारम्भ हो जाता है । १०+८०+३+३+३+३+४+४=११० यों मध्यलोक सम्बन्धी एक सौ दश योजन
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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