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________________ ५४८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके योजनानां शतान्यष्टौ हीनानि दशयोजनैः । उत्पत्य तारकास्तावचरंत्यध इति श्रुतिः ॥ ३ ॥ ततः सूर्या दशोत्पत्य योजनानि महाप्रभाः। ततश्चंद्रमसोशीति भानि त्रीणि ततस्त्रयः ॥ ४॥ त्रीणि त्रीणि बुधाः शुक्रा गुरवश्वोपरि क्रमात् । चत्वारोंगारकास्तचत्वारि च शनैश्चराः॥५॥ इस चित्रा पृथिवीसे दश योजनों करके हीन होरहे आठसौ यानी सातसौ नब्बै ७९० योजमोंके ऊपर उछल कर आकाश मण्डलमें सबसे पहिले तो तारे गमन कर रहे देखे जाते हैं । जो कि सम्पूर्ण ज्योतिषियोंके निचले भागमें विचरण करते हैं, ऐसा शास्त्रवाक्य है । उन तारोंसे दश योजन ऊपर उछल कर देखा जाय तो महती प्रभाको धार रहे सूर्यविमान चर रहे हैं । उन सूर्यविमानोंसे अस्सी योजन ऊपर उछल कर वर्तरहे किती पदार्थ को देखा जाय तो उन आकाश प्रदेशों में चन्द्रमा गमन कर रहे प्रतीत होते हैं। उन चंद्रविमानोंसे तीन योजन ऊपर अश्विनी आदि नक्षत्र विमान भ्रमण कर रहे हैं। उन नक्षत्रोंसे तीन, तीन, योजन ऊपर उछल कर क्रमसे बुध, शुक्र और बृहस्पति ग्रहों के विमान रचित हैं। उसी प्रकार यानी उस गुरुसे चार योजन ऊपर उछल कर मंगल विमान है । उससे चार योजन ऊपर चल कर शनिश्चर ग्रह चर रहे हैं । त्रिलोकसारमें "णउदुत्तर सत्तसये दस सीदी चदुदुगे तियच उक्के, तारिणसतिरिक्खबुहा सुक्कगुरुंगारमंदगदी " ऐसा पाठ है । और राजवात्तिकमें " णवदुत्तर सत्त या दससीदीच्चदुतिगं च दुगचदुक्क, तारारविससिरिक्खा बहुभग्गवगुरु अंगिरारमणी" इस ग थाको उक्तं च कहकर उदृत किया गया है। सर्वार्थसिद्धि, त्रिलोकसार और श्रुतसागरीका मत एकसा बैठ जाता है । किन्तु श्री विद्यानन्द स्वामी का मन्तव्य राजवार्तिकके कथित अनुसार है । यानी राजपातिकमे चन्द्रमा तीन योजन ऊपर नक्षत्रों का भ्रमण माना है, जब कि त्रिलोकसारमें चन्द्रमाओंके चार योजन ऊपर नक्षत्रों का भ्रमण माना गया है। इसी प्रकार अन्य बुध आदिमें अन्तर समझ लेना चाहिये । यों अम्नायके भेदका जैसे अन्यत्र निवारण कर लिया जाता है उसी प्रकार यहां भी ग्रन्थकर्ताओंके गुरुपरिपाटी द्वारा स्मरण रहे यथायोग्य प्रमेय अनुसार आगमवाक्योंका श्रद्धान कर लेना चाहिये तिसही कारण प्रन्थ कार यहां आगमप्रमाणकी प्रधानता अनुसार " श्रुति " ऐसा शब्द लिख रहे हैं। एकसौ दश योजनोंकी मुटाई अविरुद्ध है। जिन स्थानोंपर ज्योतिष्क मण्डल स्थिर है यहां भी उक्त क्रमसे ही रचनायुक्त होरहा है और मनुष्य लोकमें भ्रमण कर रहा भी इसी उक्त विन्यासको धार रहा है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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