SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वायचिन्तामणिः देवों या अहमिन्द्र आदि देवोंका महान् प्रभाव है । विचारे अल्पबली असुरकुमारोंके साथ सौधर्म आदि देवोंका कथमपि युद्ध होनेका योग नहीं लग पाता है। दूसरी बात यह है कि जैनसिद्धान्त अनुसार उन असुरकुमारोंकी उन देवोंके या देवोंकी असुरों के प्रतिकूलपन करके प्रवृत्ति नहीं होती है । यदि जन्मकल्याणक या समवसरण आदिमें प्रवतेंगे भी तो अनुकूल होकर ही प्रवृत्ति करेंगे। वचन और कायसे तो क्या मनसे भी प्रतिकूलताको नहीं ठान सकते हैं। तीसरी बात यह है कि परस्त्रीहरण या परधनप्रमोष अथवा दूसरेके अधिकृत देशपर स्वाधिकार जमाना आदि चेष्टायें ही बैरके कारण हैं । इन द्वेषके हेतुओंका अभाव हो जानेसे देव और असुरोंमें युद्ध कथमपि नहीं ठनता है । मिथ्याज्ञानी आग्रहीजन चाहे कैसी भी झूठी, सांची, कल्पनायें करें, प्रामाणिक विद्वानों के यहां उन गपोडोंका कोई मूल्य या आदर नहीं है। भले जीवोंपर झूठा कलंक लगाना कोई अच्छा थोडा ही है। अर्थतेषां भवनवासिनां दशानामपि निरुक्तिसामर्थ्यादाधारविशेषप्रतिपत्तिरिति प्रदर्शयति। अब महाराज यह बतलाओ कि इन दशों भी प्रकार के भवनवासी देवोंके भवन कहां हैं ! इसके उत्तरमें श्री विद्यानन्द स्वामी " भवनवासी " इस सामान्य संज्ञावाचक शब्दकी निरुक्तिके सामyसे ही हो रही विशेष आधारकी प्रतिपत्ति बन बैठती है, इस सूत्रकारके रहस्पको भले प्रकार दिख लाये देते हैं। दशासुरादयस्तत्र प्रोक्ता भवनवासिनः । अधोलोकगतेष्वेषां भवनेषु निवासतः॥१॥ उन देवोंमें असुरकुमार, आदिक दश भवनवासी देव भले प्रकार कहे गये हैं ( प्रतिज्ञा )। क्योंकि नीचे अधोलोकमें प्राप्त हो रहे भवनोंमें इन देवोंका निवास हो रहा है ( हेतु ) । यो अनुमान द्वारा भवनवासी शद्बकी निरुक्तिके अर्थको साध दिया है। क पुनरधोलोके तेषां भवनानि श्रूयते ? रत्नप्रभायाः पंकबहुलभागे भवनान्यमुरकुमाराणां, खरपृथिवीभागे चतुर्दशयोजनसहस्रेषु नागादिकुमाराणां । तत्रोपर्यधश्चैकैकस्मिन् योजनसहस्रे तद्भवनाभावश्रवणात् । तत्र दक्षिणोत्तराधिपतीनां चमरवैरोचनादीनां भवनसंख्याविशेषः परिवारविभवविशेषश्च यथागमं प्रतिपत्तव्यः। फिर महाराज यह बताओ कि अधोलोकमें कहां उन देवोंके भवन सर्वप्रतिपादित शाय द्वारा ज्ञात किये जाते हैं ? आचार्योकी ओरसे इसका उत्तर इस प्रकार है कि इस रत्नप्रभाके दूसरे पंकबहुल भाग असुरकुमारोंके भवन अनादिकालीन रचे दुये हैं । और रत्नप्रभाके पहिले खरपृथिवी भागये चौदह हजार योजन मोटे और असंख्यात योजन लम्बे चौडे स्थानोंमें अपशिष्ट मागमार,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy