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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
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सुपर्णकुमार, आदि नौ प्रकार भवनवासियोंके भवन हैं । एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी रत्नप्रभा पृथ्वीके ऊपरले उस सौलह हजार योजन मोटे खरपृथिवी भागमें ऊपर नीचे एक एक हजार योजन मोटे स्थानमें उनके भवनोंका अभाव आम्नाय द्वारा सुना जाता है । उन देवोंमें दक्षिणदिशाके अधिपति और उत्तरदिशाके अधिपति हो रहे चमर, वैरोचन आदि- इन्द्रोंके अधिकृत भवनोंकी संख्या
और परिवार, विभूतिविशेषको आप्तोपज्ञ शास्त्र आम्नाय अनुसार समझ लेना चाहिये । त्रिलोकसार, राजबार्तिक आदि ग्रन्थोंमें भवनवासी देवोंके सात करोड बहत्तरलाख भवनोंका निरूपण किया है । देवोंका ऐश्वर्य संख्यात, असंख्यात, योजन लम्बे चौडे विमान, चैत्यालय आदिका वर्णन किया गया है । युक्तिवादके प्रदर्शनका स्थल नहीं होनेसे या अन्य प्रन्थों में मिल जानेके कारण यहां कह देनेपर कोई विशेष अत्यधिक श्रद्धाभाव नहीं उपजनेकी सम्भावना अथवा चमत्कृतिजनक कोई विशेष उपयाोगता नहीं प्रतीत होनेसे यहां ग्रन्थविस्तार नहीं किया गया है। ... अब श्री उमास्वामी महाराज द्वितीय-निकायसम्बन्धी देवोंकी सामान्यसंज्ञा और विशेषसंज्ञाका अवधारण करनेके लिये अग्रिम सूत्रको कहते हैं । व्यंतराकिंनरकिंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ___दूसरे व्यन्तरदेव तो किंनर १ किम्पुरुष २ महोरग ३ गंधर्व ४ यक्ष ५ राक्षस ६ भूत ७ और पिशाच ८ इन विशेषसंज्ञाओंको धार रहे हैं । _ व्यतरनामकर्मोदये सति विविधांतरनिवासित्वायतरा इत्यष्टविकल्पानामपि द्वितीयनिकाये देवानां सामान्यसंज्ञा । किन्नरादिनामकर्मविशेषोदयात् किन्नरादय इति विशेषसंज्ञा । किंनरान् कामयंत इति किंनराः, किंपुरुषान् कामयंत इति किंपुरुषाः, पिशिताशनात् पिशाचा इत्याद्यन्वर्थसंज्ञायामवर्णवादप्रसंगात्, देवानां तथाभावासंभवात् । पिशाचानां मत्स्यादिप्रवृत्तिदर्शनात पिशिताशित्वसंभव इति चेत् न, तस्याः क्रीडासुखनिमित्तत्वात् तेषां मानसाहारत्वात् ।। ____ गति नामकर्मके भेद, प्रभेद, स्वरूप हो रहे किंनर, किम्पुरुष, आदि विशेष नामकर्मोका अन्तरंगमें उदय होते संते और बहिरंगमें नाना प्रकारके देशान्तरोंमें निवास करनेवाले होनेसे ये देव ध्यन्तर कहे जाते हैं । दूसरी निकायमें पाये जा रहे आठों विकल्पवाले भी देवोंकी यह सामान्यसंज्ञा अन्वर्थ है । भवनवासी और व्यन्तरशब्दोंकी निरुक्तिसे ही उक्त देवोंके निवासस्थानोंका निर्णय हो जाता है । असंख्यात विकल्पवाले नामकर्मके उत्तरोत्तर भेदरूप किंनर आदि विशेष प्रकृतियों के उदय से हो रही किनर, किम्पुरुष, आदिक यों विशेषसंज्ञायें हैं । जो पौराणिक पण्डित अपनी व्याकरणज्ञताको यो बखान रहे हैं कि कुमित नरोंकी अभिलाषा रखते हैं, तिस कारण ये देव किन्नर हैं, घोडेके