SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः ५३१ शक्तियोंपर विचार करनेसे उक्त सिद्धान्तका नग्नरहस्य स्पष्ट दीख जाता है । अवती उच्चवर्ण और व्रती नीचवर्णके तत्त्वको अथवा आहिंसक धीवर या चाण्डाल और हिंसक ब्राम्हणके तत्त्वको समझनेवाले सहृदय उदात्त विद्वानोंको उक्त सिद्धान्तके सन्मुख सिर झुकाना पडेगा । अनुक्त भी चारित्र सिद्धोंमें रखना पडता है । देवोंके क्षायोपशमिक चारित्रका निरूपण कर देनेवाले निभीक श्री विद्यानन्द आचार्य महाराजसे अपनी आत्माके उदात्तभाव बनानेकी शिक्षा लो-इत्यलम् पल्लवितेन । समझनेवालोंके लिये संकेतमात्र पर्याप्त है । लजालुओंको समुद्र, नद, कूपकी आवश्यकता नहीं है । स्वल्प जल ही पापका संकल्पपूर्वक त्याग करनेके लिये इष्टसाधक हो जाता है। किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि गुरुजी महाराज, यदि सोलह स्वर्गतक इस प्रकार व्यवस्था है तो बताओ कि ऊपर अवेयक विमानवासी अहमिन्द्रोंके किस प्रकारका सुख प्रवर्तता है ? यो प्रश्न होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अहमिन्द्रोंके सुखका निर्णय करनेके लिये अग्रिम सूत्रको यों कह रहे हैं । प्ररेऽप्रवीचाराः॥९॥ सोलह स्वौके ऊपर नवग्रेवयक, नव अनुदिश, और पांच अनुत्तर विमानोंमें उपज रहे परले अहमिंद्र देव तो मैथुनप्रवृत्तिसे सर्वथा रहित हैं । मनसे भी मैथुन सुखके अनुभवसे रीते होरहे वे कल्पातीत अहमिन्द्र परमहर्षका अनवरत अनुभव करते रहते हैं । अर्थात्-किसीको भूख या प्यास लगे उसकी षट्रस पूर्ण उत्तम, उष्ण, भोजनों या मधुर शीतल जल द्वारा निवृत्ति करके जो सुखका अनुभव किया जाता है, वह सुख अविछिन, अनवरत, ठोस, निर्बाध, नहीं है । केवल रोगका प्रतीकार मात्र है। हां, यदि किसी केवलज्ञानीको भूख, प्यास, या नींद, रोग ही नहीं है, उसके अविछिन्न परमसुख उच्च श्रेणीका माना जाता है । इसी प्रकार कल्पातीत देवोंके कामवेदनाके प्रतीकारकी झंझटोंमें नहीं पडनेके कारण सतत परम हर्ष होता रहता है। परे ग्रहणं कल्पातीतसर्वदेवसंग्रहार्थे । ततोऽनिष्टकल्पनानिवृत्तिः। अप्रवीचारग्रहणं प्रकृष्टमुखप्रतिपयर्थ, ते न मनम्नवाचाराः। तेभ्यः परे कल्पातीताः सर्वदेवाः प्रवीचाररहिता इत्युक्तं भवति । इस सूत्रमें परे शब्दका ग्रहण करना तो सम्पूर्ण कल्पातीत असंख्याते देवोंका संग्रह करनेके लिये है। तिस कारणसे अनिष्टकल्पनाओंकी निवृत्ति होजाती है। अन्यथा पानी परे शब्दका प्रहण यदि नहीं किया जायगा तो कतिपय स्वर्गवासी देवोंमें वा कुछ ही कल्पातीत देवोंमें प्रवीचाररहितपनकी अनिष्टकल्पना की जासकती है । इस सूत्रमें अप्रवीचार शब्दका ग्रहण करना तो अहमिन्दोंके होरहे प्रकृष्ट सुखकी प्रतिपत्ति कराने के लिये है । ये देव मनसे भी प्रवीचार करनेवाले नहीं हैं। यद्यपि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, या चतुर्थ गुणस्थानके भावोंको धार हे प्रैवेयकवासी अहमिन्द्र और केवल चतुर्थ
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy