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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रोक्त सिद्धान्तप्रन्थोंसे इस सूत्रका विरोध ठन जायगा । स्वल्प भाषण करनेवाले उदात्त उद्भट विद्वानोंके शब्द व्यर्थ नहीं जाते हैं । अतः प्रवीचार शब्दकरके इष्ट अर्थकी ज्ञप्ति कर ली जाती है। इस सूत्रार्थका यों अनुमानवाक्य बना लेना कि सानत्कुमार प्रभृति देव ( पक्ष ) स्पर्श, रूप आदि विषयक मैथुन प्रवृत्तियोंको धार रहे आगमविधि अनुसार जाने गये सम्भावित हो रहे हैं ( साध्यदल ) कामसम्पादक वेदकर्मके उदय या उदीरणाके विनाश स्वरूप चारित्रमोहनीयकर्म प्रतियोगिक विशेष क्षयोपशमकी तरतमताका भेद होनेसे ( हेतु ) मनुष्य विशेषोंके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्उत्तरोत्तर अधिक धर्मात्मा बन रहे सम्यग्दृष्टि, पाक्षिकश्रावक, दर्शन प्रतिमा, व्रतप्रतिमा, दिवाऽभुक्त प्रतिमावाले श्रावकोंमें जैसे क्षायोपशमिकभाव अणुव्रत ब्रह्मचर्य है । " देसविरदे पत्ते इदरे य खओवसमियभावोदु, सो खलु चरित्तमोहं पडिञ्च भणियं तहा उवरिं " यों गोम्मटसार अनुसार पांचवे देश विरत गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव माना गया है । यद्यपि नोकषायकी वेद नामक प्रकृति देशघाति है । तथापि देशघातियोंमें अपेक्षाकृत सर्त्रघातिस्पर्धकों का सद्भाव पाया जानेसे पाक्षिक आदि में सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभाव क्षय और भविष्य में उदय आनेवाले सर्वघात स्पर्धकोंकी उदीरणा नहीं हो सकने योग्य वहांका वहीं उपशम बना रहना तथा देशघाति वेद प्रकृतिके निषेकोंका उदय यों क्षयोपशम बन जाता है । यद्यपि देवों में कोई व्रत नहीं है । देशविरत के नहीं होनेसे उनके क्षायोपशमिकचारित्र कहनेके लिये जी हिचकिचाता है । फिर भी अन्तरंग कारणवश कामोदय उत्तरोत्तर देवोंमें अत्यल्प है । अतः कषायोंकी मन्दता होनेते उन देवों के निस्सन्देह चारित्र मोहका क्षयोपशम कहनेके लिये सहर्ष उत्साह हो जाता है । जब कि गोम्मटसारमें ही कहीं दर्शन मोह कचित् चारित्रमोहका अवलम्ब लेकर दूसरे गुणस्थान में पारणामिक भाव और क्षपकश्रेणीमें क्षायिक भाव जो कि सिद्धोंमें कहने चाहिये भणित किये हैं, तो अन्तरंग कर्मों की शक्ति अनुसार मैथुनसंज्ञाकी उत्तरोत्तर हानिकी ओर झुकनेवाले जीवों के चारित्रमोहका क्षयोपशम कहना अनुचित नहीं है । अतः यह हेतु पक्षमें वर्त जाता है । सर्वथा प्रवीचाररहित सर्वार्थसिद्धिके देवोंको भले ही चतुर्थ गुणस्थानवर्त्ती कहते रहो और कामतीत्राभिनिवेश नामक अतीचारको धार रहे दर्शन प्रतिमावाले स्वस्त्री - आसक्त मनुष्यको भले ही पंचमगुणस्थानवर्त्ती कहे जाओ, हम टोकते नहीं हैं किन्तु वेदकर्मो के उदय, उदीरणा, पर सूक्ष्म लक्ष्य देनेसे सर्वार्थसिद्धिके देवों या लौकान्तिक देवों में अखण्ड ब्रम्हचर्य पाया जा रहा हैं। श्लोकवार्तिकालंकार उक्त सिद्धान्तका पोषक प्रतीत हो रहा है । भगवान् का अभिषेक करनेवाले पुरुषों का या व्रतधारी श्रावकों का रस, रुधिर, मल, मूत्र, मयशरीर भले ही पवित्र आत्मारूप उपाधिकी अपेक्षा व्यवहारदृष्टिसे उपचारित पवित्र मान लिया जाय, किन्तु सौधर्म इन्द्र, लौकान्तिक, सर्वार्थसिद्धिस्थ इन देवोंके धातु, उपधातु, मलमूत्रविहीन शरीरों अथवा एकें - द्रिय जीवके वृक्ष, घास, जल, अग्नि शरीरोंको उपचारकी शरण लिये विना ही पवित्र कहने के लिये उत्साहके मारे जीव बांसों उछलता है । कर्म, पुल, आत्मा, निज परिणाम, उपादान कारण आदिकी
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