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स्वार्थ चिन्तामणिः
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शारीरिक शक्तिकी हानिशीलता अनुसार अर्द्धवृद्ध या वृद्धजनोंमें दृष्टान्तरूपेण उक्त सूत्रार्थ घटित हो जाता है। इसी प्रकार देवोंमें भी उक्त सूत्रार्थको युक्तिपूर्वक घटित कर लेना चाहिये । जो अज्ञ पुरुष शरीरस्पर्श या शुक्ररजोमोचनसे ही प्रीति उपजना स्वीकार करते हैं, उनका सिद्धान्त भ्रममूलक है । लौकिक प्रीतियोंकी उत्पत्तिके अनेक साधन हैं । वस्तुतः विचारा जाय तो विषयोंसे उत्पन्न हुआ सुख कोरा सुखाभास है। जितनी जितनी विषयतृष्णा न्यून है उतना ही उतना यह जीव अतीन्द्रिय सुख को परखने लग जाता है । तभी तो देवोंके बहिरंग आलिंगन आदि सामग्री जितनी जितनी हीन होती जायगी उतना ही उतना वे लौकिक सुखकी ओर बढते जायेंगे । अत्यधिक झंझटोंसे लौकिक सुखों में भी एक प्रकारका विघ्न ही पड जाता है। श्रृंगारी कवि भी कहता है कि " न पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमनंगोत्सवविध " कामोत्सत्र में बहुत झंझटे लगा लेना अडचनों को निमंत्रण देना है । छत्तीस प्रकारके व्यंजनोंकी अपेक्षा एक बारमें चार पांच सुन्दर व्यंजन ही अधिक तृप्तिकारक समझे गये हैं। हां, भिन्न समय न्यारी न्यारी छाकोंमें छत्तीस क्या छत्तीस सौ व्यंजन भी विचित्ररुचियोंके अनुसार तृप्तिकारक होसकते हैं । भूखसे कुछ कम भोजन करनेमें जो आनन्द है वह नाकतक भोजनको ठूंस लेने में नहीं है । जाडेकी ऋतु अत्यल्प शीतबाधा सहते हुये उपयोगी परिमित वस्त्रों द्वारा उपभोग करना जितना स्वास्थ्यप्रद होते हुये मनोहारी है उतना आवश्यकतासे अधिक गूदरा लादे रहना सुखसम्पादक नहीं है। परिशेषमें जाकर ग्रीष्म ऋतुमें जैसे वस्त्रोंका परित्याग ही वांछनीय होजाता है, उसी प्रकार ठोस सुखको चाहनेवाले जीवोंके लिये झंझटोंकों हटाकर केवल आत्मस्वरूप इकला रहजाना ही आदरणीय होजाता है । अलम् — पूर्वपूर्ववर्ती देवोंके अवलम्ब उत्तरोत्तर देवों में नहीं है । किन्तु उत्तरोत्तर देवोंके स्पर्श, रूप, शब्द, आदिमें होनेवाले प्रवीचार तो पूर्व पूर्व देवोंके आवश्यक रूपसे पाये जाते हैं। य देव रूप प्रवीचारवाले हैं वो स्पर्शप्रवीचारवाले नहीं हैं । किन्तु स्पर्शप्रवीचारवाले देव रूपप्रवीचार, प्रवीचार और मनःप्रवीचारोंको भी धारते हैं । परमागम द्वारा की गयी व्यवस्था सर्वथा निर्दोष है।
ततस्तदनतिक्रमेणैव विषयविवेकविज्ञानान्नागमकोऽयं निर्देशः । पुनः प्रवीचारग्रहणादिष्टाभिसंबंधप्रत्ययादन्यथाभिसम्बन्धे चार्षविरोधात् । संभाव्यंते यथागमं स्पर्शादिप्रवीचारा देवाः कामोदयापायस्य चारित्रमोहक्षयोपशमविशेषस्य तारतम्यभेदान्मनुष्य विशेषवत् ।
तिस कारण से उस आप्तोक परमागमका अतिक्रमण नहीं करके ही देवोंमें स्पर्श, आदि विषयोंका विभाग जान लिया जाता है । अतः यह सूत्रकारका कथन अबोधक नहीं है । " काय प्रवीचाराः आ ऐशानात् " इस पूर्वसूत्रसे यहां प्रवीचार शब्दकी अनुवृत्ति हो सकती है। फिर जो सूत्रकारने उस सूत्रमें प्रवीचार ग्रहण किया है उस व्यर्थ पड रहे प्रवीचार शब्दके ग्रहणसे आगम विधि अनुसार इष्ट अर्थका अभिसम्बन्ध कर लेना प्रतीत हो जाता है। यदि दो दोमें या चार चार स्वर्गीमें यों अन्य प्रकारोंसे स्पर्श रूप आदि विषयक प्रवीचारोंका अभिसम्बन्ध किया जावेगा तो ऋषि
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