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तत्वार्थ लोकवातिक
ते देवाः शेषाः सानत्कुमारादयो यथागमं स्पर्शादिप्रवीचाराः प्रतिपत्तव्याः। सानत्कुमारमाहेंद्रयोः स्पर्शश्वीचारा देवास्तेषामुत्पन्नमैथुनसुखलिप्सानां समुपस्थितस्वदेवीशरीरस्पर्शमात्रात्मीत्युत्पत्ती निवृत्तेच्छत्वोपपत्तेः । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठेषु रूपप्रवीचाराः, स्वदेवीमनोज्ञरूपावलोकनमात्रादेव निराकांक्षतया प्रीत्यतिशयोपपत्तेः। शुक्रमहाशुक्रसतारसहस्रारेषु शब्दप्रवीचाराः, स्वकांतामनोज्ञशब्दश्रवणमात्रादेव संतोषोपपत्तेः । आनतपाणतारणाच्युतकल्पेषु मनम्मवीचाराः, स्वांगनामन:संकल्पमात्रादेव परमसुखानुभवसिद्धेरिति हि परमागमः श्रूयते ।
उक्त देवोंसे परीिशष्ट हो रहे वे सानत्कुमार माहेन्द्र आदिक देव तो आम्नाय प्राप्त आगम अनुसार स्पर्श, रूप, आदिमें प्रवीचार करनेवाले समझ लेने चाहिये । वह आगमविधि इस प्रकार है कि सानत्कुमार और माहेंद्र स्व!में निवास करनेवाले देव स्पर्श करनेमें मैथुनोपसेवन करनेवाले हैं । क्योंकि मैथुनजन्य सुखके प्राप्त करनेकी अभिलाषा उत्पन्न होते ही उन देवोंके उसी समय उपस्थित हो गयीं निजदेवियों के शरीरका केवल स्पर्श यानी आलिंगन या स्तन, मुखचुम्बन आदि क्रिया कर लेनेसे प्रीति उत्पन्न हो चुकनेपर उन देवोंकी मैथुन इच्छा की निवृत्ति होनारूप कार्य सध जाता है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट स्वर्गौमें निवास कर रहे देव तो रूपमें प्रवीचार करनेवाले हैं । क्योंकि मैथुनकृत्यकी अभिलाषा होते ही उसी समय निकटप्राप्त हुयी अपनी सुन्दर देवियोंके मनोज्ञ रूप यानी सुन्दर वेष, विलास, विभ्रम, चातुर्य, श्रृङ्गार, आकार, सौन्दर्यका, केवल अवलोकन कर लेनेसे ही स्वकीय भोगाकांक्षाकी निवृत्ति होते हुये अतिशय युक्त प्रीति उपजनारूप कार्य बन जाता है । तथा नौवें, दशवे ग्यारहवें, बारहवें, शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार, स्वर्गनिवासी देवोंके शद्बमें ही प्रवीचार होता है। अपनी अपनी रमणीय कान्ताओंके मनोज्ञ शद्बोंके सुनने मात्रसे संतोषकी सिद्धि हो जाती है। देवियोंके मधुर संगीत, कोमल हास्य, भूषण शद, नृत्यकी झंकार आदिका श्रवण कर पूर्व देवोंकी अपेक्षा इनको अत्यधिक प्रेम रस उपजता है। आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, इन स्व!में देव मनमें ही प्रवीचार करनेवाले हैं। अपनी अंगनाओंके मानसिक संकल्प मात्रसे ही उक्त देवोंकी अपेक्षा अत्यधिक वैषायक सुखका अनुभव साध लेते हैं । इस प्रकार प्राचीन परम आगम वाक्य सुने जा रहे हैं । भावार्थ-वर्तमानमें भी इस ढंगसे मनुष्य या स्त्रियोंमें अंशरूप करके यो कामपुरुषार्थ सेवन देखा जाता जाता है । परस्पर स्त्रीपुरुषों के सुन्दर अवयवोंकी टकटकी लगा कर निरखने वाले रसिकों या बकभक्त धार्मिकोंमें चाक्षुष मैथुन बहुत पाया जाता है । तीव्र वेदना या चलाकर उपजायीं गयीं वासनाओं के अनुसार कायप्रवीचारमें प्रवृत्ति होती है । इसके अतिरिक्त समयोंमें कामवेदनाका अल्प आधात होनेकी दशामें स्पर्श प्रवीचारसे ही स्त्रीपुरुषोंकी इच्छा परिपूर्ण हो जाती है । कदाचित् अत्यल्प वेदनाकी दशाओंमें रूपावलोकन, परस्पर संभाषण, मनोज जन्य मानसिक विचारोंसे ही तृप्ति हो जाती है। उत्तरोत्तर ढलती हुई अवस्थामें