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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः इस सूत्रमें " शेषाः ” यह वचन तो कहे जा चुके भवनत्रिक और सौधर्म, ईशानवासी देवोंसे अवशिष्ट बच रहे कल्पवासी देवोंका संग्रह करनेके लिए हैं और वे उक्तोंसे अवशिष्ट रहे देव तो तृतीय स्वर्गवासी सानत्कुमार आदिक अध्युत स्वर्गपर्यन्तके कल्पोपपन्न देव ही ग्रहण किये जाते हैं । क्योंकि अग्रिम सूत्र द्वारा परले कल्पातीत देव प्रवीचाररहित हैं। यों परिभाषण भविष्यमें किया जानेवाला है । तथा “ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः " इस सूत्र द्वारा बारह विकल्पधारीपने करके कहे जा चुके कल्पोपपन्नपर्यन्त स्वर्गवासी देवोंका ही यहां प्रकरण प्राप्त हो रहा है। अतः कल्पातीत देवोंमें कोई अतिप्रसंग नहीं हो पाता है। नन्वेव के स्पर्शप्रवीचाराः के च रूपादिप्रवीचारा इति विषयविवेकापरिज्ञानादगमकोऽयं निर्देश इत्याशंकायामिदमभिधीयते । यहां किसीकी शंका है कि इस सूत्र करके आधारभूत विषयोंका पृथक्, पृथक् रूपसे विचार नहीं किया गया है कि इस प्रकार कौनसे देव तो स्पर्श द्वारा मैथुनप्रवृत्तिको धार रहे हैं, और कौनसे देव भला रूप, शब्द, आदि करके कायपुरुषार्थमें लवलीन हैं ? यों विशेषतया परिज्ञान नहीं होनेसे यह सूत्रका निर्देश करना अभिप्रेत अर्थका गमक नहीं है । यो आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा यह समाधान वचन कहा जाता है। ते स्पर्शादिप्रवीचाराः शेषास्तेभ्यो यथागमं । . ज्ञेयाः कामोदयापायतारतम्यविशेषतः ॥१॥ उन उक्त देवोंसे शेष रहे वे कल्पवासी देव तो स्पर्श आदिमें मैथुनोपसेवन करनेवाले हैं । इस सिद्धान्तको आम्नायानुसार प्राप्त हुये आगमप्रमाणका अतिक्रमण नहीं कर समझ लेना चाहिये । चारित्रमोहनीय सम्बन्धी वेदकर्मके उदय या उदीरणास्वरूप कामोदयके अपाय ( विनाश) की तरतमरूपसे विशेषता देखी जाती है । अतः स्पर्श, रूप, शब्द, इन उत्तरोत्तर विप्रकृष्ट होरहे सहकारियों द्वारा देवोंमें ऊपर ऊपर प्रवीचार अल्प अल्प है । अथवा यों अनुमान कर लेना कि वे उपरिम चौदह स्वर्गवासी देव ( पक्ष ) कामवेदनाकी न्यूनताके तारतम्य अनुसार स्पर्श, रूप, आदिमें प्रवीचार करनेवाले हैं ( साध्य ) क्योंकि काम वेदनाके सम्पादक वेदकौके उदयका नाश होजानेकी तरतमताका विशेष होनेसे ( हेतु ) । अर्थात्-लुखटिया, सिरकटा, ल्हिरिया, चीता, सिंह, इनको जैसे उत्तरोत्तर भय हीन हीन है या कृपण, सकुटुम्बधनी, अधमर्ण, व्यापारी, पण्डित, भोगभूमियां, देव, सम्यग्दृष्टि, मुनिमहाराज, उपशमश्रेणीवाले, इन जीवोंमें जैसे भय उत्तरोत्तर न्यून है अथवा श्रङ्गारी, रसिया, उपभोक्ता सद्गृहस्थ, मल्ल, अणुव्रती श्रावक, उदासीन, इनमें उत्तरोत्तर कामवेदना स्वल्प है, इसी प्रकार सानत्कुमार आदि देवोंमें ऊपर ऊपर कामपुरुषार्थकी न्यूनता है। कामकी हीनताके तारतम्यसे सुखकी प्रकर्षताका तारतम्य अविनाभावी है।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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