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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके monamainamnamwarene सुखविशेषका कथन करना जान लिया जाता है " आ ऐशानात् " ईशान स्वर्गतक ऐसा वचन करनेसे मर्यादा बांध दी गयी है, तब तो चौथी वैमानिक निकायमें सम्पूर्ण देवोंके मनुष्य, पशु, पक्षियोंके समान शरीर द्वारा मैथुनप्रवृत्तिका प्रसंग प्राप्त हो जानेपर उस प्रसंगही निवृत्ति के लिये ऐशानात् इस प्रकार सूत्रकारका वचन स्वीकार करनेके लिये युक्तिपूर्ण है। वैमानिक, भवनवासी और व्यन्तर ये तीनों जातिके देव उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे अधिक हैं । हां, व्यन्तरोंसे ज्योतिषी देव तो संख्यात गुणे अधिक है । परिशिष्ट सम्पूर्ण वैमानिक देवोंसे असंख्यात गुणे देव केवल सौधर्म और ऐशान दो स्वर्गामें बस रहे हैं । इस सूत्रद्वारा आदिकी तीनों निकायें और चौथी वैमानिक निकाय मेसे ईशान स्वर्गवासी देवोंतक एक सांसारिक विशिष्ट सुख माने जा रहे कायप्रवीचारका प्रतिपादन हो चुका है । अब सनत्कुमार आदि अच्युत पर्यन्त वैमानिक देवोंके मिथुनजन्य सुखविभागका प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको कहते हैं। शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः॥८॥ उक्त देवोंसे शेष बच रहे अच्युत पर्यन्त देव तो परस्पर स्वकीय नियत देव, देवियोंके स्पर्शमें, रूप अवलोकनमें, शब्दश्रवणमें और मनोजन्य मानसिक विचारोंमें, मैथुनोपसेवन क्रियाको धार रहे हैं । अर्थात्-उत्तम देवोंमें मैथुनप्रवृत्ति उत्तरोत्तर न्यून होती गयी है । देव सदा प्रवीचारमें ही लवलीन नहीं रहे आते हैं। मनुष्य, स्त्री, पशु, पक्षियोमें भी सर्वदा ही काम वेदना जागरूक नहीं रहती है। किन्तु अन्तरंग या बहिरंग कारणोंके मिलनेपर कापवासनाये जग जाती हैं या जगा ली जाती हैं । सभी जीवोंको चाहे वे धर्मात्मा न भी होय कामसेवनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक आवश्यक कर्तव्य बने रहते हैं । मनुष्योंको शरीरप्रकृतिके अनुसार शौच, स्नान, भोजन, शयन आदि कार्योंमें आवश्यक कालयापन करना पडता है। अनेक पशु, पक्षी, तो स्वकीय नियत ऋतुओं के अतिरिक्त कितने ही महीनोतक अरतिवान् उदासीन रहे आते हैं। हां, श्रृंगारी पुरुषों को आत्मवलकी न्यूनता हो जानेसे विषयवासनायें अधिक सताती हैं । देवदोवयों के भी जब कभी कामवासनायें उपजती हैं तो वे परस्पर स्पर्श, रूपावलोकन, आदि द्वारा लौकिकतृप्तिको प्राप्त होते हुये प्रीतिलाभ कर लेते हैं । “ षण्णामिन्द्रियाणां स्वेषु स्वेषु विषयेषु आनुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः " स्पर्शन इन्द्रिय के समान या उससे भी अधिक कामसेवन इन अन्य इन्द्रियों द्वारा भी होता है, यह बात इस सूत्रसे ध्वनित हो जाती है। शेषा इति वचनं उक्तावशिष्टसंग्रहार्य, से चोक्तावशिष्टाः सानत्कुमारादयः कल्पोपपत्रा एवाच्युतान्ताः परेप्रवीचारा इति वक्ष्यमाणत्वात् कल्पोपपनपर्यन्तानामेव द्वादशविकल्पत्वेन निर्दिष्टानां प्रकरणाच।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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