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________________ ५१६ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके जानपद, महाशयोंके सदृश इतस्ततः फैल रहे ही वे प्रकीर्णक जातिके देव हैं । जो कि महाराजाके समान इन्द्रके नागरिक या राष्ट्रीय जनके तुल्य ये देव भी विशिष्ट हर्षके उत्पादक हैं । वाहनादिभावेनाभिमुख्येन योगोभियोगस्तत्र भवा अभियोग्यास्त एव आभियोग्याः इति स्वार्थिकः यण् चातुर्वर्ण्यादिवत्, अथवा अभियोगे साधवः आभियोग्याः अभियोगमतीति वा आभियोग्यास्ते च दाससमानाः । किल्विषं पापं तदेषामस्तीति किल्विषिकाः तेंत्यवासिस्थानीयाः । एकैकस्य निकायस्यैकश इति वीप्सार्थे शस् । सवारी जाना, ले आना, ऐसे वाहन, या दास्य कर्म आदि परिणतिरूपसे अभिमुखपने करके जो योग यानी कटिबद्धपना है, वह अभियोग कहा जाता है। उस अभियोग में विद्यमान हो रहे देव अभियोग्य हैं और वे ही देव आभियोग्य कहे जाते हैं । भव अर्थमें अभियोग्य शब्द बनाकर यण प्रत्यय किया गया है, जैसे कि चतुर्वर्णा एव चातुर्वर्ण्य, चतुःश्रमा एव चातुरापुनः स्वार्थिक श्रम्यं, त्रिलोका एव त्रैलोक्यं, त्रिकाला एव त्रैकाल्यं, आदिक है । अथवा अभियोगे साधवः आभियोग्याः यों " तत्र साधुः पदोंमें स्वार्थिक यण् प्रत्यय किया गया " इस सूत्र द्वारा यण् प्रत्यय किया जा सकता है और अभियोगको करनेके लिये जो समर्थ हो रहे हैं, वे अभियोग्य हैं, इस अर्थ में भी ( खिदमदगार ) के समान ये देव हैं । इस कारण वे देव किल्विषिक हैं। ग्राम या चर्मकार आदि निकृष्ट मनुष्यों के स्थानापन्न सबके उच्चगोत्रका ही आभियोग्य शब्दको बना लिया जाता है, चाकर, दासों किल्विष यानी पाप जिन देवों के विशेषतया विद्यमान है, नगरके अन्तिमभागमें वस रहे चाण्डाल, अपच, भंगी, हो रहे ये देव हैं । यद्यपि यहांके चाण्डालों के नीचगोत्रका उदय है और देवोंमें उदय है । फिर भी कोई लौकिक विभूतिका परिकर रिक्त नहीं हो जाय, इसलिये यथायोग्य जितना सम्भव हो सके उतना उपमान उपमेयभाव घटित कर लेना चाहिये । एकशः यहां एक एक निकायके यों अर्थ कर वीसा अर्थमें शस् प्रत्यय किया गया है । यानी एक एक देव निकायके ये इन्द्र आदिक दश दश भेद पाये जाते हैं । कुतः पुनरेकैकस्य निकायस्थॆद्रादयो दशविकल्पाः प्रतीयंत इत्यावेदयति । तर्काभिलाषी कोई जिज्ञासु पूंछता है कि फिर यह बताओ कि एक एक निकायके ये इन्द्र, सामानिक, आदिक दश भेद भला किस प्रमाणसे निर्णीत किये जा सकते है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्त्तिक द्वारा समाधानकोटिका निवेदन करे देते हैं । इन्द्रादयो दशैतेषामेकशः प्रतिसूत्रिताः । पुण्यकर्मविशेषाणां तद्धेतूनां तथा स्थितेः ॥ १ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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