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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः एक एक निकाय के प्रति इनके इन्द्र आदिक दश भेद श्री उमास्वामी महाराजने सूत्र द्वारा ठीक निरूपण किये हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उन इन्द्र, सामानिक आदिके हेतु हो रहे विशेष विशेष पुण्यकर्मोकी तिस प्रकार व्यवस्था हो रही है ( हेतु ) । यथैव हि देवगतिनामपुण्यकर्मसामान्याद्देवास्तद्विशेषभवनवासिनामादिपुण्योदयाच भवनवास्यादयस्तथैर्वेद्रादिना म पुण्यकर्मविशेषेण इंद्रादयोपि संभाव्यंते, तेषां तद्धेतूनां युक्त्यागमाभ्यां व्यवस्थितेर्बाधकाभावात् । जिस ही प्रकार गति नामकर्मकी उत्तर प्रकृति हो रही सामान्य देवगति नामक पुण्यकर्म के • उदयसे उक्त चारों निकायके जीव देव हो रहे हैं और उस देवगतिके भी उत्तरोत्तर भेद हो रहीं भवनवासी, व्यंतर या असुरकुमार, किन्नर आदि विशेष पुण्यप्रकृतियोंका रसोदय हो जानेसे भवनवासी व्यंतर, असुर, किन्नर, आदि देव हो जाते हैं उसी प्रकार देवगतिके भेद, प्रभेद, हो रहे इन्द्र, सामानिक, आदिक नामकर्म और अन्य शुभनाम, सातावेदनीय, शुभगोत्र इन पुण्यकर्म विशेषों के उदयसे इन्द्र आदिक भेद भी हो रहे सम्भव जाते हैं, भिन्न भिन्न कारणोंसे भिन्न भिन्न कार्योंकी उत्पत्ति हो जानेका नियम है। उन इन्द्र आदिकों के सृष्टा हेतु हो रहे उन पौगलिक कर्म विशेषोंकी युक्ति प्रमाण और आगमप्रमाण करके सुव्यवस्था हो रही है । कोई बाधक प्रमाण नहीं है । अतः मनुष्यों या पशुओंकी भिन्न भिन्न सूरतें, मूरतें, सुख, दुःख, बुद्धि, वैभव, आदिके समान देवोंके इन्द्र अहमिन्द्र आदि भेद भी पौद्गलिक कर्मविशेषों के अनुसार सुघटित हो जाते हैं । "असंभवद्बाधकत्वाद्वस्तुसिद्धिः” । 1 ५१७ यों तो इन्द्र आदिक दशों भेद चारों भी निकायोंमें उत्सर्गविधिद्वारा प्रसंग प्राप्त हुये । तिस कारण अपवाद करने के लिये विशेषसूत्रको श्री उमास्वामी महाराज कहते हैं । वायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्या व्यंतरज्योतिष्काः ॥ ५ ॥ व्यन्तर और ज्योतिष्क निकायसम्बन्धी देव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल जातिके देवोंसे रहित हैं। इन्द्रादिदशविकल्पानामुत्सर्गतोऽभिहितानां चतुर्षु निकायेष्वविशेषेण प्रसक्तौ तदर्थमिदमुच्यते । सामान्यरूपकरके उत्सर्गविधिसे कहे जा चुके इन्द्र, सामानिक, आदि दश भेदोंका जब चारों निकायों में विशेषरहित होकरके प्रसंग प्राप्त हुआ तो उस कुछ अनिष्टप्रसंगके निवारणार्थ श्री उमास्वामी महाराज इस अपवाद सूत्रको खानते हैं । अपवाद नियमोंको ढालकर, अतिरिक्त स्थानों पर अनपोदित उत्सर्गविधियां प्रवर्तती हैं " अपवादा उत्सर्गविधिं बाधन्ते " कुतः पुनर्व्यतरा ज्योतिष्काः त्रायस्त्रिंशैर्लोकपालैश्च वर्ज्या येन तेष्टविकल्पा एव स्युरित्यारेकायामिदमाह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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