SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ लोकवार्तिक आता अनपेत ( समुचित ) है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करना । क्योंकि “द्विनवाष्टा” इत्यादि सूत्र करके गिनाये गये तीन प्रकार के पारिणामिक भावके प्रतिज्ञा करनेकी हानिका प्रसंग है । अतः सूत्रमें आदि शद्वको नहीं डालकर तीन प्रकार पारिणामिक भात्रोंको गिना दिया है । पुनः शंकाकार कहता है कि सूत्रमें समुच्चय अर्थको कहनेवाले च शब्दका ग्रहण करते सन्ते भी तो वही दोष समानरूमसे लागू होता हैं । अर्थात् —च शब्द करके अस्तित्व आदि पारिणामिक भाव पकडे जायेंगे तो भी तीन प्रकारके पारिणामिक भावों की प्रतिज्ञा करनेकी हानि होय ही जावेगी, अतः प्रतिज्ञाभंग दोष तदवस्थ रहा । इसपर ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कटाक्ष तो नहीं कर सकते हो। क्योंकि पारिणामिक भावोंके तीन संख्या की प्रतिज्ञाको प्रधानरूपकी अपेक्षा है । हां च शद्ब करके उपरिष्ठात् एकत्र करलिये गये तो अप्रधान भूत ही अस्तित्व आदिक ले लिये जाते हैं । अर्थात्–जीवत्व आदि तीन प्रधानभूतभाव हैं, और अस्तित्व आदि अप्रधानभूत हैं, जिनको कि कण्ठोक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं । इस प्रकार कोई दोष नहीं हो पाता है । ४० - कुतः पुनः पारिणामिका जीवत्वादयो भावा इति चेत्, कर्मोपशमक्षयक्षयोपशमोदयानपेक्ष`त्वात् । तस्य जीवितपूर्वकत्वाज्जीवत्वमिति चेन्न, उपचारतो जीवत्वप्रसंगात् । मुख्यं तु जीवत्वं तस्येष्यते, ततो न ह्यौदायिकं । 1 आत्मा जीवत्व आदिक भावों को भला फिर पारिणामिकपना किस ढंगसे नियत किया जाय, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विज्ञानन्दस्वामी कहते हैं कि कर्मोके उपशम, क्षय, क्षयोपशम, और उदय की नहीं अपेक्षा होनेसे जीवत्व आदि भाव पारिणामिक हैं । कर्मोंके उपशमादिको निमित्त न मानकर केवल आत्मीय परिणामोंकी अपेक्षासे होनेवाले स्वभाविकभाव पारिणामिक हैं। यहां कोई यों कहें कि भ्वादिगणकी “ जीव प्राणधारणे " धातुसे बनाया गया जीव शब्द है । अतः बहिरंग प्राण आयुष्य कर्मके उदयकी अपेक्षा रखते हुये जीवत्व भावको औदयिक मानना चाहिये । उदय आदिकी नहीं अपेक्षा रखना, यह पारिणामिकका लक्षण तो उसमें घटता नहीं है । श्री विद्यानंदस्वामी कहते हैं कि यह आक्षेप हमारे ऊपर नहीं हो सकता है । क्योंकि आयुकर्मके उदयकी अपेक्षासे यदि जीवत्व भाव माना जायगा तो सिद्ध महाराजके अजीवपनेका प्रसंग होगा। यदि कोई यों कहे कि अजीवीत्, जीवति, जीविष्यति, इति जीवः इस प्रकार तीनों कालमें जीवन क्रियाकी अपेक्षा रखनेवाला जीव है। श्री सिद्धपरमेष्ठी पहिले संसार अवस्थामें आयुकर्मका उदय होता रहनेसे जीव रह चुके हैं । अतः भूतप्रज्ञापन पननयकी अपेक्षा सिद्धोंका भी जीवत्व रक्षित हो जाता है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि यों तो सिद्धोंको उपचारसे ही जीवपनेका प्रसंग हुआ । वास्तव में देखा जाय तो उन सिद्धों के मुख्य होता हुआ जीवत्वभाव इष्ट किया गया है । तिस कारण निर्णीत हुआ कि जीवत्वभाव औदायिक नहीं है। परिणाम है |
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy