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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः ४१ ननु च ज्ञानादेर्भावप्राणस्य धारणात् सिद्धस्य मुख्यं जीवत्वमित्यभ्युपगमे क्षायिकमेतत्स्यादनंतज्ञानादेः क्षायिकत्वादिति चेत् न, जीवनक्रियायाः शद्धनिष्पत्त्यर्थत्वात् तदेकार्थसमवेतस्य जीवत्वसामान्यस्य जीवशद्धप्रवृत्तिनिमित्तत्वोपपत्तः । अथवा न त्रिकालविषयजीवनामभवनं जीवत्वं । किं तर्हि ? चित्तत्वं न च तदायुरुदयापेक्षं न चापि कर्मक्षयापेक्षं सर्वदाभावात् । यहां और भी किसीकी शंका है कि सिद्धोंके पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु, श्वासोच्छ्रास, इन दश द्रव्यप्राणोंका धारण नहीं है। फिर भी ज्ञान, सुख, चैतन्य, सत्ता इस प्रकारके भावप्राणोंका धारण होनेसे सिद्धोंके भी मुख्य जीवत्व प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार स्वीकार करनेपर तो यह जीवत्वभाव क्षायिक हो जायगा । क्योंकि अनन्तज्ञान आदिक तो ज्ञानावरण आदि कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुये क्षायिक हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि प्राणधारणरूप जीवन क्रिया तो व्याकरण शास्त्र द्वारा जीव शद्बकी साधु सिद्धि करने मात्रके लिये है। जहां ही जीव द्रव्यमें प्राण धारण रूप जीवनक्रिया रहती है, वहां ही जीवत्व नामकी जाति रहती है, जो दो धर्म एक द्रव्यमें समवाय सम्बन्धसे ठहरते हैं । उनका रूप, रसके समान परस्परमें एकार्थ समवाय सम्बन्ध माना गया है। अतः जीवत्व नामक सामान्यको जीव शब्दकी प्रवृत्तिका निमित्तपना युक्तिसे निर्णीत हो रहा है । जीवत्व जाति ही जीवत्वभाव है । रूढि शद्बोंमें धात्वर्थ क्रियाको केवल व्युत्पत्तिके लिये ही माना गया है । उसका परिपूर्ण अर्थ घटित करना आवश्यक नहीं, अथवा हम यह सिद्धांत करते हैं कि तीनों कालोंमें प्राणधारण या जीवत्व जाति इस नामके सद्भाव बने रहनेको हम जीवत्व नहीं मानते हैं, तो आप जैन जीवत्वका क्या अर्थ करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि आत्माका चैतन्य गुण ही जीवत्व है । वह चेतना तो आयुष्य कर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाली. नहीं है । और वह चतन्य कर्मोके क्षयकी अपेक्षाको धारनेवाले भी नहीं है । कारण कि अनादिसे अनन्तकालतक निगोद अवस्थासे लेकर सिद्धोंतकमें वह चैतन्यभाव सदा पाया जाता है। औदयिकभाव या क्षायिकभाव तो सर्वदा नहीं पाये जाते हैं । अनादिकालसे अनन्तकालतक द्रव्य मुद्राकर परिणाम करता हुआ चैतन्यगुण ही जीवत्व शबसे लिया जाता है । औदयिकभाव धारावाही रूपसे भले ही किसी अनादि अनन्त संसारी जीवके सदा पाये जाय किन्तु व्यक्ति रूपसे वे सादिसान्त हैं। हां चैतन्य तो व्यक्तिरूपसे भी अनादि अनन्त है । भले ही घटता बढता रहे क्षायिकभाव तो सादि अनन्त प्रसिद्ध ही हैं। एतेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन सिद्धभवनयोग्यत्वं भव्यत्वं तद्विपरीतमभव्यत्वं च पारिणामिकमुन्नेयं तस्यापि कर्मोदयाद्यनपेक्षत्वसिद्धेः सर्वदा भावात् । अनादिपरिणाममात्रनिमित्तत्वात् । इस उक्त कथन करके यह भी कह दिया गया उपरिष्ठात् लक्षण समझ लेना चाहिये कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणामकरके भविष्यमें सिद्धपर्याय होनेकी वर्तमानकालमें
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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