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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः I जानेवाला अरूपत्व धर्म भी कर्मके उदय आदिकी अपेक्षा नहीं रखनेके कारण पारिणामिक भाव है । यद्यपि पुद्गल द्रव्यमें कथमपि अरूपत्वभाव नहीं हैं । फिर भी अन्य चार द्रव्योंमें भी पाया जाना होनेसे अरूपत्वभाव जीवका साधारण परिणाम ही गिना जायगा, तथा नित्यद्रव्य अर्थको ग्रहण करने की अपेक्षा संपूर्ण द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय, न होनेसे कर्मके उदयादिक की अपेक्षा न रखनेवाला नित्यपना भी पारिणामिक भाव है । एवं बहुतसी परमाणुये लोकपर्यन्त उपरको जानेकी टेव रखती हैं। अग्नि उपरको जाती है । जलमें डुबोई हुई तूंबी ऊपरको उछलती है । अतः कुछ पुगलोंमें भी प्राप्त हुआ होनेसे उर्ध्वगतिपन स्वभाव भी जीवका साधारण भाव है । सभी द्रव्ये भविष्यकालमें होनेवाली पर्यायोंकी ओर बह रहीं ह । अतः द्रव्यपना भी जीवका साधारण भाव है। चुम्बक, मोरपंख, अयोगोलक, अनुकूल गायन, मनोहारी रूप, खानि, आदि पुद्गलों में भी वर्तरहा होनेसे आकर्षकत्व भाव भी योगी जीवका साधारण परिणाम है, इत्यादि और भी पारिणामिकभाव समझ च । साधारण भावोंमें कुछ तो षट्स्थानपतित हानि वृद्धिको प्राप्त हो रहे अनुजीवी अस्तित्व और अगुरुलघु दूसरे नामको धारनेवाला अन्यत्व है । द्रव्यत्व, प्रदेशवत्व हैं । तथा कर्तृत्व, आकर्षकत्व भोक्तृत्व ये पर्यायशक्तिरूप भाव हैं | पर्यायवत्त्व, संततिबन्धनबद्धत्व, अरूपत्व, ये द्रव्योंके स्वभाव हैं । द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा यार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्यत्व अथवा स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व और नास्तित्व इत्यादिक भाव तो वस्तुकी भित्तिपर सप्तभंगी के विषय हो रहे कल्पनाक्रान्त परिणाम हैं । विद्वजन इसको और विशद रूपसे समझ सकते हैं । अथवा इन अस्तित्व आदि भावोंमें दो कर्तृत्व, भोक्तृत्वको जीवका ही असाधारण भाव समझो । असर्वगतत्वको आकाशभिन्न पांच द्रव्योंका परिणाम समझ लो । अरूपत्वको पुद्गलरहित पांच द्रव्योंका परिणाम मानो । अस्तित्व, अन्यत्व, पर्यायवत्त्व, प्रदेशवत्वको सभी छःऊ द्रव्यों का स्वभाव गिन लो । अनादिबन्धनबद्धत्वको जीव पुद्गल दो द्रव्योंका भाव विचार 1 । तभी तो श्री विद्यानंद आचार्यने च शद्वकरके साधारण और असाधारण दोनों जातिके भावोंका समुच्चय किया कहा है । कभी साधारणका अर्थ छःऊ द्रव्योंमें ठहरना विवक्षित है । ऐसी दशामें जो भाव छ: ओंमें नहीं ठहरता हुआ दो, तीन, चार, पांच, द्रव्योंमें ही पाया जायगा वह असाधारण माना जायगा और कहीं जीवसहित दो तीन चार या पांच द्रव्योंमें वर्त रहा भाव भी साधारण हुआ विवक्षाप्राप्त है। ३९ गुण हैं । जैसे कि भी अनुजीवी गुण असर्वगतत्व, अनादि नित्यत्व और पर्यापरचतुष्टयकी अपेक्षा तर्ह्रादिग्रहणमत्र न्याय्यमिति चेन्न, त्रिविधपारिणामिकभावप्रतिज्ञाहानिप्रसंगात् । समुच्चयार्थेपि च शद्धे सति तुल्यो दोष इति चेन्न, प्रधानापेक्षत्वात्त्रित्वप्रतिज्ञायाः । समुच्चीयमानास्तु चशनाप्रधानभूता एवास्तित्वादय इति न दोषः । जब कि च शद्ब करके अस्तित्व, अन्यत्व आदिक पारिणामिक भावोंका समुच्चय किया जाता है, तब तो इस सूत्र में " जीवभव्याभव्यत्वादीनि " इस प्रकार आदि शद्बका ग्रहण करना न्यायमार्ग से
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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