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________________ ३८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके उदयादिककी अपेक्षा नहीं है । असर्वगतपना भी आकाशको छोडकर सम्पूर्ण द्रव्योंमें पाया जानेवाला भाव है । आकाश सर्वगत है, इसका अर्थ मध्यम अनन्तानन्त इस बीसवीं नियत संख्यावाले प्रदेशोंको धारना मात्र है । सर्व शबसे अस्तित्वभाववाले जगत् स्थित अनन्तानन्त नियत पदार्थ पकडे जाते हैं, अलोकाकाशकी चौकोर प्रदेशभित्ति के बाहर फिर कोई भी छहऊ ओर पदार्थ नहीं है । अनन्तानन्त आकाशोंको जाननेकी शक्ति रखनेवाला केवलज्ञान पुनः आकाशके बाहर किसी पदार्थको नहीं जान रहा है। वहां कोई पदार्थ सम्भव होता तो उसको विषय कर लेता । सरल बुद्धिवाले शिष्योंको समझानेके लिये सर्वगतकी अपेक्षा आकाशको अनन्तगत कह देना व्युत्पत्ति सम्पादक है । वैशेषिक या पौराणिकोंके यहां ईश्वर सर्वशक्तिमान् माना गया है। सर्वशक्तिका अर्थ वे " कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम् ” समर्थ है ऐसा मानते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि ईश्वर चाहे तो मछलीसे मनुष्य पैदा हो जाता है, देवी और पुरुष या देव और मनुष्यणी या तिचिनीके सम्बन्धसे भी अपत्य उत्पन्न हो जाता है । मुसलमानोंका खुदा तो जडको चेतन बना सकता है । चाहें जब आत्मायें बना लेता है, और चेतन द्रव्योंको नास्तित्व ( नेस्तनाबूद ) कर देता है । असत्का उत्पाद सत् द्रव्यका विनाश होना इष्ट कर लिया है, इत्यादि असम्भव कार्योका सम्पादन कर देना भी सर्वशक्तिका अर्थ कर लिया है । किन्तु जैनसिद्धान्त अनुसार असम्भव कार्य किसीके द्वारा भी हुये नहीं माने गये हैं । जैनसिद्धान्तमें सर्वज्ञको या सिद्धजीवोंको अनन्त शक्तिमान स्वीकार किया है, सर्वशक्तिमान् नहीं । अतः सर्वशक्तिमान्के समान सर्वगत आकाशके सर्वशद्वका दुरुपयोग नहीं करना चाहिये । यदि कोई दुरुपयोग करना चाहे तो सर्वगतत्वाभावको आकाशका भी परिणाम हम माननेको उद्युक्त हैं। कर्मके उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम इन निमित्तोंकी अपेक्षा नहीं होनेसे असर्वगतत्त्वभाव परिणामिक है। तथा अनादि संततिबन्धनबद्धत्व भाव भी साधारण पारिणामिक भाव है । क्योंकि एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश, असंख्याते कालद्रव्य, अनन्तानन्त जीवद्रव्य और इनसे अनन्तान्त गुणे पुद्गलद्रव्य ये नियत हो रहे सम्पूर्णद्रव्य अपनी अपनी अनादि अनन्त पर्यायोंके सन्तानस्वरूप बन्धन में बंध रहे हैं । क्योंकि जीव पुद्गलद्रव्योंकी गति करनेमें उदासीन हेतुपन या सम्पूर्ण द्रव्योंमें उदासीन स्थापकत्व अथवा सम्पूर्ण द्रव्योंको अवकाश देना तथा वर्तना-कराना एवं स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण चैतन्य, सुख आदि इन सहभावी, क्रमभावी, पर्यायोंकी सन्तान अपने अपने द्रव्यमें तदात्मक हो रही बांधी जाचुकी है, शुद्ध द्रव्यमें भी यह परिणाम पाया जाता है, अतः कर्मोके उदय आदिकी अपेक्षा नहीं होनेसे अनादिबन्धनबद्धत्व नामका पारिणामिक भाव है । प्रदेशवत्व परिणाम भी सम्पूर्ण द्रव्योंका साधारण भाव है। सभी द्रव्य किसी न किसी चौकोर, गृहीतशरीर आकार, लोकविन्यास, षंडशचौकोर, बरफीसमान आदिसे स्थानोंको धार रहे व्यंजन पर्याववाले हैं । वे उचितसंख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेशोंको घेरकर बैठे हुये हैं। रूप, रस, आदि गुणोंके न होनेसे शुद्ध जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, कालमें पाया
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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