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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणि wom इस प्रकार इतरेतर द्वन्द्व समास कर पुनः भाव अर्थमें तद्धितसम्बन्धी त्व प्रत्यय करते हुये जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, यह अर्थ निकल आता है । पारिणामिकस्य भावस्य त्रयोऽसाधारणा भेदा इत्यभिसंबंधः। च शद्धसमुच्चितास्तु साधारणाः असाधारणाचास्तित्वान्यत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वपर्यायवत्त्वासर्वगतत्वानादिसंततिबंधनबद्धत्वप्रदेशवत्त्वारूपत्वनित्यत्वादयः। पूर्व सूत्रसे भेदशद्वकी अनुवृत्ति कर परिणामरूप प्रयोजनको धारनेवाले पारिणामिकभावके असाधारण भेद तीन हैं । इस प्रकार दोनों उद्देश्य, विधेय, दलोंका अन्वय कर दोनों ओरसे सम्बन्ध होना बन जाता है । हां, समुच्चय अर्थको कहनेवाले सूत्रोक्त च शबसे तो अन्य द्रव्योंमें पाये जाय और जीव द्रव्यमें भी पाये जाय ऐसे साधारण तथा कतिपय असाधारण हो रहे इन अस्तित्व आदि भावोंका संग्रह कर लिया जाता है । वे भाव आस्तत्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्व, असर्वगतत्व, अनादिसंततिबन्धनवद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व, ऊर्ध्वगतित्व, द्रव्यत्व, आकर्षकत्व, आदि हैं । अर्थात्-वस्तुको तीनों कालतक स्थिर रखनेवाला अस्तित्व गुण छहों द्रव्योंमें पाया जाता है । अतः जीवका साधारण भाव है । सम्पूर्ण द्रव्यों को परस्पर भिन्न करनेवाला अन्यत्वभाव भी साधारण है, जो कि कर्मोके उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी, अपेक्षा नहीं रखता हुआ पारिणामिक है । कर्त्तापन भी साधारण भाव है । " मेघो वर्षति, आकाशमवगाहते, धर्मद्रव्यं गमयति, कालो वर्त्तयति" आदि क्रियाओंको उपजावनेमें संपूर्ण द्रव्योंको स्वाधिकार अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त है। " स्वतंत्रः कर्ता " यह कर्ताका सिद्धांत लक्षण है । स्वकीय वीर्यकी प्रकर्षतासे परद्रव्यकी शक्तियोंके ग्रहण करनेकी सामर्थ्य ही भोक्तापन है, यह भोक्तृत्व भी अन्य द्रव्योंमें पाया जाता है । अतः साधारण भाव है । यद्यपि स्थूलदृष्टिसे कपिन और भोक्तापन अकेले जीवका ही परिणाम प्रतीत हो रहा है । फिर भी सूक्ष्मविचार करनेपर वह साधारण भात्र समझा जाता है। गृहस्थ सम्बन्धी अनेक कार्योंके कर्ता और भोक्ता स्त्रीपुरुष दोनों ही हैं, बन्ध और बन्धका फल दोनोंके गुणोंका च्युत हो जाना तथा मोक्ष इनके कर्ता और भोक्ता जीव पुद्गल दोनों हैं । बुभुक्षित पारद सुवर्णका भक्षण कर उसका भोक्ता बन जाता है । सांभरकी झील काठ, पथरा, मट्टी, आदिको खा जाती है। अपने वीर्य प्रकर्षसे उनका लवण कर देती है । उदरकी अग्नि, अन्न, जल, दुग्ध, आदिका और चूल्हेकी अग्नि लकडीका भोग करती है । चैतन्य न होनेसे पुद्गलको भोगी न कहा जाय, इसमें स्वार्थी जीवका पक्षपातपूर्वक स्वप्रशंसा करना ही कारण है । भोक्ता पुरुषके समान स्त्री भी पुरुषकी भोत्री होती है । जो बच्चेको क्रीडा करा रहा है, वह स्वयं भी उसके साथ खेल रहा है । अतः सूक्ष्मदृष्टिको विचारनेवाले पक्षपातरहित पुरुष भोक्तृत्वको साधारणभाव स्वीकार करते हैं । यह जीवके भोग, उपभोग, भावोंसे न्यारा उदयादि की नहीं अपेक्षा रखता हुआ पारिणामिकभाव है। तथा पर्यायसहितपना भी पारिणामिक है । सभी द्रव्य अपनी अपनी नियतपर्यायोंको धारते हैं । इस कार्यको करने में उनको किसी कर्मके
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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