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________________ 5 तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके कषायोदयतो योगप्रवृत्तिरुपदर्शिता । लेश्या जीवस्य कृष्णादिः षड्भेदा भावतोनधैः ॥ ११ ॥ सामान्य रूपसे ज्ञानावरण कर्मका उदय हो जानेसे पदार्थोंका अनवबोध होना जीवके अज्ञानरूप सामान्यभाव कहा गया है । अन्यथा बानी ज्ञानावरणका उदय हुये विना सर्वघाति स्पर्द्धकोंके उदयजन्य होनेवाले अज्ञानभावकी असिद्धि है । द्वीन्द्रिय जीवके नासिकाज्ञानावरणके सर्वघाति स्पर्द्धकोंका उदय हो जानेसे गन्धविषयक अज्ञानभाव है । आजकलके मनुष्योंके मनःपर्यय ज्ञानावरणका उदय हो जानेसे मनःपर्यय ज्ञान न होना रूप अज्ञानभाव है। बारहवें गुणस्थानतक केवलज्ञान नहीं होना रूप अज्ञानभाव है तथा चारित्रमोहनीयसम्बन्धी सर्वघातिरपर्द्धक प्रकृतियोंके उदयसे आत्माके असंयमभाव होता है। पहिलेसे प्रारंभ कर चौथे गुणस्थानतक इन्द्रियासंयम और प्राणासंयमरूप औदयिकभाव हो रहा भले प्रकार कहा जाता है तथा अभेदकी विवक्षा सभी एकसौ बाईस प्रकृतियोंका और भेदकी विवक्षा सम्पूर्ण कर्ममात्र एकसौ अडतालीसों प्रकृतियोंका उदय हो जानेसे ही असिद्धपनाभाव प्रकृष्ट रूपसे नियत हो रहा हुआ कहा जाता है । एकसौ अडतालीस प्रकृतिओंमें से किसी भी एकका यदि उदय होगा तबतक आसिद्धपना ही है । कषायोंके उदयसे विशेषित हो रही योगोंकी प्रवृत्ति तो जीवका लेश्याभाव समझाई गयी है । अर्थात् जैसे रागके आवेशसे हंसीसहित अशिष्ट वचन बोलना यदि दूषित शरीरचेष्टासे युक्त हो जाय उतने समुदितभावको कौत्कुच्य कहते हैं । उसी प्रकार आत्माके कषायभावोंसे रंगा हुआ आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप परिणाम तो औदयिक होता हुआ भावलेश्या है । स्थूल रूपसे क्षुधा आदि अठारह और सूक्ष्मरूपसे अनन्त दोषों करके रीते हो रहे निर्दोष सर्वज्ञ देवने लेश्याके भाव अपेक्षा कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल, इस प्रकार छह भेद बतलाये हैं, भावलेश्या आत्माका औदयिक परिणाम है । आत्माके भावोंका निरूपण करते समय वर्णनाम कर्मके उदयसे हुये शरीरके ऊपरी रंगस्वरूप द्रव्यलेश्याका यहां कोई प्रकरण नहीं है । यहांतक गति आदिक इकईस औदयिक भावोंका विवरण करदिया गया है। अथ पारिणामिकभेदप्रतिपादनार्थ सप्तममिदं सूत्रमाह । अब औदयिक भावोंके अनन्तर अन्तके पारिणाभिक भावोंके भेदोंकी प्रतिपत्तिको करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज द्वितीयाध्यायमें सातवें सूत्रका कण्ठोक्त निरूपण करते हैं । जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ जीवत्य, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन जीवके असाधारण हो रहे पारिणामिकभाव हैं । च शब्दके द्वारा अस्तित्व आदि साधारण भावोंका संग्रह भी कर सकते हो । जीव और भव्य तथा अभव्य
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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