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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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करना इन विभावपरिणामोंका अनुभव होता है । श्री उमास्वामी मुनिमहाराजने जीवके हास्यादिभाव भी उपलक्षणवाले उस लिंग करके ही प्रतिष्ठित कर कह दिये हैं।
दृष्टिमोहोदयात्पुंसो मिथ्यादर्शनमिष्यते । दृगावरणसामान्योदयाचादर्शनं तथा ॥ ६॥ सासादनं च सम्यक्त्वं यदनंतानुबंधिनः। कषायस्योदयाजातं तदप्येतेन वर्णितम् ॥ ७॥ सम्यग्मिथ्यात्वमेकेषां तत्कमोदयजन्मकं । मतमौदयिकं कैश्चित्क्षायोपशमिकं स्मृतम् ॥ ८॥
इनके आगेका सूत्रोक्तभाव मिथ्यादर्शन है, जो कि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जीवके हो रहा माना जाता है । तिसी प्रकार मिथ्यादर्शनमें अदर्शनभावका अवरोध हो जाता है । निद्रानिद्रा आदिक विभावपरिणामोंका भी उस मिथ्यादर्शनमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिये । नौ प्रकारके दर्शनावरण कर्मका सामान्य उदय हो जानेसे तिस प्रकार अदर्शनभाव हो जाता है । जो कि मिथ्यादर्शन शद्वसे उपलक्षित कर दिया जाता है । और दूसरे गुणस्थानमें जो चारित्रमोहनीयके उदयसे हुआ सासादनसम्यक्त्वरूप विभावपरिणाम भी अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे उत्पन्न हो रहा सन्ता
औदयिकभाव है। वह भी इस मिथ्यादर्शन करके ही वर्णना युक्त कर दिया गया है । अर्थात्-मिथ्यादर्शनको उपलक्षण मान कर उसके मित्र सासादन सम्यक्त्वका भी औदयिक भावोंमें संग्रह कर लेना चाहिये । एक प्रसिद्ध आचार्यके मतमें जो मिश्रमोहनीय कर्मके उदयसे हुआ सम्यग्मिध्यात्वभाव. है, वह उस सम्यङ्मिथ्यात्व नाम कर्मके उदयसे जन्म लेता हुआ औदयिक माना गया है । यह हमारी सम्मति है । हां किन्हीं आचार्योंने सम्यङ्मिध्यात्व भावको क्षायोपशमिक माना है । उनकी गुरु परिपाटीमें वैसा ही सर्वज्ञधारा अनुसार स्मरण किया गया चला आ रहा है । उसको हम पहिले पांचवें सूत्रके विवरणमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व द्वारा संग्रह कर चुके हैं । अपेक्षासे सम्यमिथ्यात्व भावको क्षायो पशमिक या औदायिक दोनों प्रकार मानना हमको अभीष्ट है । दोनोंकी युक्तियां भी कही जा चुकी हैं।
ज्ञानावरणसामान्यस्योदयादुपवर्णितं । जीवस्याज्ञानसामान्यमन्यथानुपपत्तितः ॥९॥ वृत्तमोहोदयात्पुंसोऽसंयतत्वं प्रचक्ष्यते । कर्ममात्रोदयादेवासिद्धत्वं प्रणिगम्यते ॥ १० ॥