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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
गतिनामोदयादेव गतिरोदयिकी मता। तद्विशेषोदयत्सैव चतुर्धा तु विशिष्यते ॥ १ ॥ तयोपलक्षिताघातिकर्मोदयनिबंधनं । सुखाद्यौदयिकं सर्वमेतेनैवोपवर्णितम् ॥ ३॥
नामकर्म का विशेष भेद हो रहे गतिनाम कर्मके उदयसे ही आत्माकी हो रही गतिनामक परिणति औदयिकभाव मानी गयी है । उस गतिनाम पिण्डप्रकृतिके भेद विशेष हो रहे नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, और देवगति इन चार कर्मोके उदयसे तो वही आत्माका गतिपरिणाम चार प्रकारोंसे भेदयुक्त कर दिया जाता है । श्री उमास्वामी महाराजने अघातियोंमें प्रधान हो रहे नामकर्म और उसमें भी प्रधान हो रहे गतिकर्मका कण्ठोक्त निरूपण करदिया है । शेष रहे संपूर्ण अघातिया कर्मोंका उस गतिसे ही उपलक्षण कर दिया जाता है । अतः उस गतिसे उपलक्षित हो रहे जाति आदिक और वेदनीय, आयुः, गोत्र, कर्मोके उदयको कारण मानकर हुये आत्माके सुख, मनुष्य शरीरमें ठुसा रहना, उच्च आचरण, नीच आचरण आदिक भाव भी औदायक हैं । यह सब इस उक्त कथनसे ही निरूपण करदिया गया समझलेना चाहिये ।
तथा क्रोधादिभेदस्य कषायस्योदयान्नृणाम् । चतुर्भेदः कषायः स्यादन्यथाभावसाधनः॥४॥ लिंगं वेदोदयात्रेधा हास्यायुदयतोपि च । हास्यादिस्तेन जीवस्य मुनिना प्रतिवर्णितः ॥ ५॥
तिसी प्रकार क्रोध, मान आदिको धारनेवाले पुद्गल निर्मित कषायवेदनीय नामक चारित्र मोहनयिके उदयसे जीवोंके क्रोध, मान, माया, लोभ, चार भेदोंको धारनेवाले कषायभाव होते हैं । अथवा अनन्तसंसारके कारण मिथ्यात्वका अनुबन्ध करनेवाले या स्वरूपाचरणको बिगाडनेवाले परिणाम और देशचारित्रको रोकनेवाले तथा सकलचारित्रका घात करनेवाले एवं यथाख्यात चारित्रको कसनेवाले ये चार प्रकार विभावभाव जीवोंके हो जाते हैं । स्वाभाविक परिणामोंसे हटाकर आत्माकी अन्यथाभाव परिणति ही कषायभावका ज्ञापक हेतु है । पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद इन तीनों वेदोंके उदयसे आत्मामें तीन प्रकारका लिंगपरिणाम होता है, जिससे स्त्रीरमण, पुरुषरमण, या उभयरमणके कलुषतारूप परिणाम होते रहते हैं । तथा हास्य, रति, आदि कर्मोंके उदयसे भी हंसना या देश, उपवन, गायन, नृत्यकला, आदिके लिये उत्सुक रहना, अथवा इनमें अनुत्सुक रहना, शोकमें रहना, डरना, घृणा