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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके केवल सामर्थ्यसे ज्ञात कर लिया जाता है, उसके लिये सूत्र रचना करना पुनरुक्तसारिखा है। अतः आधारविशेषको नहीं कह कर तीनो लोकके यथायोग्य आधेय हो रहे निकायोंका प्रतिपादक सूत्र चतुर्थ अध्यायमें प्रथम स्थान पा गया है । - अब उन देवोंकी लेश्याओंका निर्णय करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः॥२॥ भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क, और वैमानिक इन चार निकायोंमें आदिसे प्रारम्भ कर भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क, इन तीन निकायोंमें पीतपर्यन्त लेश्यावाले देव हैं । अर्थात्-भवनत्रिक देवोंके कृष्ण, नील, कापोत, और पीत ये चार लेश्यायें पायी जाती हैं । क्रोधादि कषाय परिणामोंके साथ जो मन, वचन, कायका अवलम्बन रखनेवाले योगों की प्रवृत्ति हो जाती है, आत्माकी इस संकीर्ण परिणति को लेश्या कहते हैं। कौत्कुच्य या तृतीयगुणस्थान अथवा तृतीय गुणस्थानके दधिगुडमिश्रित स्वादके समान मिश्रभाव अथवा तीसरे गुणस्थानमें पाये जा रहे सम्यग्मिध्यापनसे मिले हुये ज्ञान एवं " शब्दार्थोभयपूर्ण " और " आलोचनप्रतिक्रमणतदुभय " यहां पडे हुये उभय इनको समझनेवाले विद्वान् लेश्या स्वरूप संकर परिणतिके रहस्यको झटिति समझ लेते हैं । चारित्रमोहनीयकर्मकी चारो जातिके चार क्रोध या चार मान आदि और हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, एक कोई सा वेद, यों एक साथ नौ प्रकृतियों का किसी मिथ्यादृष्टिके उदय होनेपर जैसे एक चारित्र गुणकी नौ पर्यायात्मक एक संकर विभाव परिणति होती है, इसी प्रकार कषाय और योगकी मिश्रणात्मक लेश्या नामकी चित्रपरिणति हो जाती है । संक्षेपार्थमिहेदं सूत्रं लेश्याप्रकरणेऽस्य वचने विस्तरप्रसंगात् । तेन भवनवासिव्यंतरज्योतिष्कनिकायेषु देवाः पीतांतलेश्या इति । इह तु देवा इत्यवचनमनुवृत्तेर्भवनवास्याद्यवचनं च तत एव । सूत्रकारने प्रन्थका संक्षेप करनेके लिये लेश्याका प्रकरण नहीं होनेपर भी यहां यह लेश्याका प्रतिपादक सूत्र कह दिया है । यदि लेश्याके प्रकरणमें इस सूत्रको कहा जाता तो शब्द सन्दर्भके अधिक विस्तार होनेका प्रसंग हो जाना, यह तुच्छ दोष लग बैठता । अर्थात् --" पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु " इस सूत्रके पहिले या पीछे यदि भवनत्रिक देवों की लेश्याको कहा जाता तो वहां ग्रन्थ बढ जाता अथवा इसीको नवीन ढंगसे श्याका प्रकरण मानकर यहां पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ” सूत्र कहा जाता तो यहां सौधर्म आदि स्वर्गों का निरूपण करना आवश्यक होता। अतः संक्षेपके लिये सूत्रकारको यो यथादृष्ट ग्रन्थ का गूंथना ही समुचित प्रतीत हुआ है, जो कि सर्वांग सुचारु है । तिस कारण इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार है कि भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क, इन
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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