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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः है । अर्थात् देवोंका कोई विशेष स्थान नियत होता तब तो सातों नरक या मनुष्य लोकके समान देवस्थानोंका भी नियत रूपसे वर्णन कर दिया जाता । किन्तु देव तीनों लोकमें रहते हैं और सूत्रकारको अधोलोक और मध्यलोकी वर्णनाके पश्चात् ऊर्ध्वलोकका वर्णन करना है । अतः आधारपूर्वक आधेयोका कथन नहीं कर लघु उपाय द्वारा आधेयपूर्वक आधारोंका कथन करना न्यायप्राप्त है । वक्ताको प्रकरणकी सामर्थ्य इसी ओर झुका रही है । न हि यथा नारकाणामाधारः प्रतिनियतोऽधो लोक एव मनुष्याणां च मानुषोत्तरान्मध्यलोक एव, तथा देवानामूर्ध्वलोक एव श्रूयते । भवनवासिनामधोलोकाधारतयैव श्रवणात्, व्यंतराणां तिर्यग्लोकाधारतयापि श्रूयमाणत्वात् । ततो लोकत्रयनिवासिनां सामर्थ्यादूर्ध्वलोकस्य संस्थानं च मृदंगवद्वक्तुमैहत सूत्रकारः आधारमनुक्त्वा निकायसंवित्तये सूत्रप्रणयनात् । ५०३ "" जिस प्रकार नारकियों का आधार अधोलोक ही ठीक नियत हो रहा है और मनुष्यों का आधार मानुषोत्तर पर्वत से भीतरका मध्यलोक ही प्रतिनियत है, तिस प्रकार देवोंका आधार स्थानप्रामाणिक शास्त्रोंद्वारा केवल ऊर्ध्वलोक ही नहीं ज्ञात किया जा रहा है। क्योंकि भवनवासियोंका अधोलोक ही स्थान आधारपने करके आम्नायप्राप्त शास्त्रोंद्वारा सुना जा रहा है । अर्थात् - त्रिलोकसारमें भी यों लिखा है कि " वेंतर अप्पमहड्डिय मज्झिमभवणामराणभवणाणि, भूमीदोधो इगिदुगबादालसहस्सइगिलक्खे रयणप्पहपंकडे भागे असुराण होंति आवासा, भौम्मेसु रक्खसाणं अवसेसाणं खरे भागे " तथा व्यंतर देवोंका आधारपने करके तिर्यग्लोक भी सर्वज्ञ आम्नात शास्त्रद्वारा ज्ञात किया जा रहा है। " चित्तव इरादु जावय मेरुदयं तिरियलोयवित्थारं, भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे " । तथा तृतीयाध्याय के प्रथम सूत्रकी राजवार्तिक में " तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं परित्यज्य मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजनसहस्रे तु किन्नरकिंपुरुषमहारगगंधर्वयक्षभूत पिशाचानां सप्तानां व्यंतराणा, नागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीप दिक्कुमाराणां नवानां भवनवासिनां चावासाः | पंकबहुलभागेऽसुरराक्षसानामावासाः " तिस कारणसे तीनों लोकोंमें निवास करनेके शील ( ठेव, आदतको ) धारनेवाले देवोंकी चार निकायों के कण्ठोक्त निरूपणकी सामर्थ्यसे ही विना कहे ऊर्ध्वलोकका मृदंग ( पखावज ) के समान संस्थानको कहने के लिये सूत्रकार अभिलाषा रखते थे । अतः देवोंके आधारस्थान को नहीं कह कर उनकी निकायों का सम्वेदन करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराजने प्रथम ही " देवाश्चतुर्णिकायाः " यह सूत्र बना दिया है । भावार्थ - अधोलोक और मध्यलोकका निरूपण कर चुकनेपर ऊर्ध्वलोकका निरूपण तो कुछ आगे पछि प्ररूपण द्वारा बिना कहे ही ज्ञात कर लिया जाता है । स्थान एक ऊर्ध्वलोक ही नियत भी नहीं है । तिर्यञ्च भी तीनों लोकोमें रहते हैं । अतः लिये ऊर्ध्वलोक स्थानका निरूपण करना सूत्रकार को अनिवार्य नहीं देवोंका स्थान विशेष को बतानेके देवों के पडा । जो विषय विना कहे ही
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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