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तत्वार्थक वार्तिके
ननु च ब्राह्मसौम्यप्राजापत्य ऐंद्रयक्षराक्षसभूतपिशाचानामष्टप्रकाराणामष्टौ निकायाः कुतो न परोक्ता इति चेत्, परागमस्य तत्प्रतिपादकस्य प्रमाणत्वासंभवादित्यसकृदभिधानात् । यहां पौराणिक पण्डितोंकी एक और शंका है कि ब्राह्म ( ब्रह्मासम्बन्धी ) २ सौम्य ( चन्द्रमासम्बन्धी ) ३ प्राजापत्य दक्ष, कश्यप, आदि प्रजापतियोंके अपत्य ४ इन्द्रसम्बन्धी ५ यक्ष ६ राक्षस ७ भूत ८ पिशाच इन आठ प्रकार वाले देवोंकी आठ निकायें दूसरे विद्वानों के यहां कही गयी हैं । अतः सूत्रकारने देवोंकी ये आठ निकायें क्यों नहीं कहीं ? यों शंका होने पर तो श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं कि उन दूसरे विद्वानोंके आठ निकायका प्रतिपादन करनेवाले आगमकी प्रमाणताका असम्भव है, इस बातको इम कई वार अनेक प्रकरणों में कह चुके हैं। अपनी, अपनी, पोथियोंमें कोई भी चाहे जैसी अन्ट सन्ट बातोंको लिख देता है । किन्तु प्रमाणभूत आगमों के विषयका आदर होता है। ब्रह्मा इन्द्र, दिति, अदिति, कश्यप, आदिसे देवों की सृष्टि होना कहना अलीक वचन । अतः देबोंकी चार निकायें ही सत्यार्थ हैं।
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ननु च नारकमनुष्याणामिवाधारवचनपूर्वकं देवानां वचनं किमर्थे न कृतमित्याशंकमानं प्रत्यावेदयति ।
पुनः किसी शिष्यका जिज्ञासापूर्वक अनुनय है कि तृतीयाध्यायमें जैसे नारकी जीवोंके आधारका पाईले निरूपण कर पश्चात् नारक जीवोंका कथन किया है और मनुष्यों के आधार होरहे जम्बूद्वीप, भरत, आदिका पूर्वमें वर्णन कर पीछे मनुष्यों का प्रतिपादन कर दिया है, उसी प्रकार सूत्रकारको प्रथम देवोंके आधारस्थानों का वर्णन कर पुनः आधेयभूत देवोंका वचन करना चाहिये था । ऐसा वचन श्री उमास्वामी महाराजने किस लिये नहीं किया ? पद्धतिभंगदोष को क्यों स्थान देते हो ? इस प्रकार आशंका कर रहे विनीत शिष्य के प्रति श्री विद्यानन्द स्वामी बढिया ढंगसे वार्तिकों द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
देवाश्चतुर्णिकाया इत्येतत्सूत्रं यदब्रवीत् । नारकाणामिवाधारमनुत्क्वा देवसंविदे ॥ १ ॥ सूत्रकारस्तदेतेषां लोकत्रय निवासिनां । सामर्थ्यादूर्ध्वलोकस्य संस्थानं वक्तुमैहत ॥ २ ॥
नारकियोंके आधार समान देवोंके आधारको प्रथम नहीं कहकर सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज जो " देवाश्चतुर्णिकायाः " यो इस सूत्र को कह चुके हैं। वह तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले चतुर्निकायसम्बन्धी इन देवोंको सामर्थ्य से ऊर्ध्वलोककी रचना विशेषको कहनेके लिये सूत्र बना दिया