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________________ १९४ तत्वार्यश्लोकवार्तिके नादियोंका कुछ विवरण दिखाया है । महागंगा, महासिधु आदि नदियोंके चार कोशवाले छोटे योजनोंसे हजारों योजनोंके विस्तार, लम्बाई, गहराईयों, को दृष्टान्त पुरस्सर साध दिया है । भरत आदि क्षेत्रोंकी व्यवस्थाके प्रतिपादक सूत्रोंकी अनतिविस्तारसे टीका कर दी है । भूमियोंकी अवस्थिति बतानेवाले सूत्रमें भूमिशब्दके ग्रहणसे स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि भरत, ऐरावत, क्षेत्रोंकी भूमियां उतने ही आकाशमें ऊंची नीची लम्बी चौडी होकर घटती बढती रहती है। उनमें रहनेवाले मनुष्य आदिके अनुभव, आयुः, आदिका घटना बढना तो प्रसिद्ध ही है । हां, भोगभूमियोंमें या नरक, स्वर्गों, में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालोंका परिभ्रमण नहीं है । पश्चात् ढाईद्वीप सम्बन्धी भोगभूमियां, जीवोंकी आयुका बखान कर विदेहस्थ जीवोंकी आयुको दिन, मास, वर्ष, आदि द्वारा गणनाका विषय बताते हुये श्री आचार्य महाराजने जम्बूद्वीपके भरतकी आकाश सम्बन्धी नापको समझाया है । धातकी खण्डका व्याख्यान करनेके प्रथम लवण समुद्र और उसमें विराज रहे पाताल, गौतमद्वीप, का विशेष निरूपण कर दिया है।व्याख्यान कर्ताओंके उत्सूत्रवादीपन दोषका निराकरण कर धातकी खण्डके भरतक्षेत्रके अभ्यन्तर मध्यम और बाह्यविष्कम्भ योजनों द्वारा गिना ( नपा ) दिये गये हैं। इश्वाकार पर्वतोंके विवरणको भी छोडा नहीं है। इसके अनन्तर पुष्करार्ध द्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके अभ्यन्तर, मध्य, बाह्य, विष्कम्भोंको गणितशास्त्र अनुसार निकालकर वर्षधर और मानुषोत्तर शैलकी मनोहर रचनाको दिखा दिया गया है। यहां भी दोनों इष्वाकार पर्वतोंको संक्षेपसे कहते हुये गुरुवर्यने विस्तृत प्रतिपत्ति करनेवालोंको विद्यानन्द महोदय ग्रन्थके अध्ययनकी ओर झुकाया है । आर्य, म्लेच्छ, मनुष्योंके भेद प्रभेदोंकी व्यवस्थाको अनुमान मुद्रासे साध कर क्षेत्र आर्य आदिकोंके सकारणपनको सुझाते हुये आचार्य महाराजने अन्तीपज म्लेच्छोंकी आयु, शरीर उत्सेध, प्रवृत्तियोंका निरूपण कर दिया है । कर्मभूमि सम्बन्धी आठ सौ पचास म्लेच्छ खण्डोंके सम्पूर्ण मनुष्य और ढाई द्वीपसम्बन्धी एक सौ सत्तर आर्य खण्डोंके कतिपय चाण्डाल, कसाई, आदि जीवोंको म्लेश्छाचारोंकी पालना करनेसे बहुत प्रकारके म्लेच्छोंकी व्यवस्था करा दी है । संतान परम्परासे चली आयी सम्प्रदाय अनुसार यह आर्यव्यवस्था या म्लेच्छव्यवस्था विचारशील व्यवहारियोंके यहां प्रत्यक्ष, अनुमान, और आगम प्रमाणोंसे निश्चित है । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, व्यवस्थाओंमें रहस्य अवश्य है । घोडे, कुत्ते, बन्दर, गेंहू. चना, नारंगी, आम, लुकाट, गुलाबका फूल आदिक पशु, अन्न, फल, पुष्प इनकी सन्तान अनुसार भिन्न भिन्न जाति या कुलकोटी अनुसार संतति ( नस्ल ) में महान् अन्तर पड जाता है । इसी प्रकार नास्तिकोंकी संतान या आर्य, म्लेष्छ, पुरुषोंकी संतान भी पारिणामिक रहस्यसे रीती नहीं है । कुलीनता, अकुलीनता, छिपी नहीं रहती है। बात इतनी ही है कि जो जिस विषयका भांपनेवाला है, वह उस विषयके सूक्ष्मरहस्योंका सुलभतया परिज्ञान कर लेता है। मन्दज्ञानी अन्य पुरुष उपेक्षा धारण करते हुये उस गूढ विषयतक नहीं पहुंच पाते हैं । चिर अभ्यस्त श्रृङ्गारी पुरुष अतिशीघ्र ही
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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