SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ४९३ णोंका अभाव होनेसे और प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम प्रमाणों करके विरोध होजानेसे इस अचला भूमिका भ्रमण कथमपि नहीं होपाता है । यूरोपीय विद्वानोंने कोई चेन कर्त्ता भूमिका भ्रमण करानेवाला भी अभीष्ट नहीं किया है । जैसे कि जैनोंने सूर्य, चन्द्रमा, आदिके विमानोंको भ्रमानेवाले अभियोग्य जातिके देव माने हैं । अतः इस भूमिका ऊपर नीचे भ्रमण या पूर्व पश्चिम भ्रमण कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता है । इसके आगे भूमिका अधःपतन माननेवाले माता1 न्तरों को दिखला कर श्री विद्यानन्द आचार्यने युक्तियों द्वारा उनका निराकरण कर दिया है । इसी प्रकार भूमिका ऊर्ध्वगमन या सूर्यकी ओर निकट, निकट गमन अथवा तारतम्य मुद्रासे सूर्यके दूर दूर हो रहे भ्रमणका निराकरण भी हो जाता है । अनादि कालसे सूर्य, भूमि आदि सुव्यवस्थित हैं । अन्यथा न जाने कितने समय पूर्व ही इनकी दुर्दशा हो गयी होती । अतः उक्त कल्पनायें सब निराधार हैं । अस्मदादि मनुष्य या जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि असंख्य द्वीप समुद्रोंकी आधारभूत ये रत्नप्रभा या शर्कराप्रभा आदि भूमियां अनन्त योजनोंतक फैली हुयी नहीं हैं | और अन्य अन्य अनेक भूमियों के आधारपर डटी हुई भी नहीं हैं । किन्तु प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा ठीक ठीक नापे जा 1 रहे किसी मध्यम असंख्याता संख्यात नामकी संख्यावाले योजनों करके लम्बी चौडीं नाप ली गयीं हैं । सात पृथिवियोंके मध्यवर्ती छह अन्तरालोंमें असंख्यात योजनोंका अन्तर है । अतः ये स्थूल भूमियां निश्चयनयसे स्वाति और व्यवहार दृष्टिसे वातवलय के आश्रित समझा दी गयीं हैं । उस उस जातिके पापकी विचित्रतासे उन उन भूमियोंमें कर्मवश जीवका गमन होते रहना बताया है। उन सात भूमियों के कतिपय भागोंमें निवास करनेवाले नारकी जीवोंकी उपार्जित कर्म अनुसार अपनी अपनी आयुः पर्यन्त स्थितिको कह कर नारकियोंकी अशुभ लेश्या आदिक परिणतियों को युक्तियों द्वारा साधा है । रौद्रध्यानसे नरकों में उत्पत्ति होनेके कारण मैढा, तीतर, कुत्ता आदिके समान परस्पर लड भिड कर दुःख भुगतना साधा गया है असुर कुमारों द्वारा दुःख देनेके हेतुको समझा कर उन नरकों में जीवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको अनुमान द्वारा प्रसिद्ध किया है । उसके पश्चात् मध्यलोकका वर्णन करते. ये और सूत्रोक्त पदों की सफलताको पुष्ट करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामीने जम्बूद्वीप आदिपदसे बहुव्रीहि वृत्ति द्वारा निकाल दिये जा रहे जम्बूद्वीपको वडे अच्छे ढंगसे बाल बाल बचा लिया है । मेरु 1 और इसके इधर, उधर, भरत आदि क्षेत्रों के प्रतिपादक सूत्रोंका व्याख्यान कर वृत्तवेदाढ्यों की रचना बता दी है । भरत आदि सात ही क्षेत्रोंका अवधारण करते हुये आचार्य महाराजने अन्य मतियोंकी कल्पित क्षेत्र संख्याओंका प्रत्याख्यान कर दिया है। दुग्धमें घृत के समान जग तू सर्वत्र स्याद्वाद सिद्धान्त ओतपोत होकर प्रविष्ट हो रहा है । उन क्षेत्रों का विभाग करनेवाले पर्वतोंकी उपपत्ति, परिणाम, पार्श्वरचना, विस्तार आदिका व्याख्यान कर अगले हृद और पुष्करोंके प्रतिपादक सूत्रोंका विवरण तथा कमलनिवासिनी देवियोंके सूचक सूत्रका अर्थ समझा दिया है। नदियोंके प्रतिपादक सूत्रका पदकृत्य कर गंगा आदिक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy