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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्त्रियोंके सौन्दर्यको निरख लेता है । ब्रह्मचारी उदासीन पुरुष अथवा योगी या पशु उस युवती सुन्दर स्त्रीके लीला, स्मित, विलास, सुन्दरता, आदिको नहीं जान पाता है । मोटे, पतले, बडे, नाटे पुरुषोंमेंसे सुदृढ शरीरसंगठनावाले पुरुषकी परीक्षा जितना शीघ्र एक कुशल मल्ल कर लेता है, उतना प्रविष्ट होकर कोई दूसरा मुनि या शास्त्रीय परीक्षा उत्तीर्ण विद्वान् अथवा बालक, पशु, जौहरी, कथंचित् नहीं कर सकता है । खरीदनेवाले या नहीं खरीदने वाले पुरुषों और भोली बुद्धि, चंचल बुद्धिवाले ग्राहकोंकी परीक्षाको पुराना दुकानदार जितना प्रविष्ट होकर कर लेता है उतना विशद रूपसे कोई नवीन दुकानदार नहीं कर पाता है। बढिया चोर या गठकटा जितना शीघ्र दूसरोंके छिपे हुये धनको भांप लेते हैं, स्वयं घरवालोंको घंटोंतक ढूंढने पर भी जब कि वह धन नहीं मिलता है, उस प्रकार कोई क्षुल्लक या राजा, महाराजा नहीं ताड सकते हैं । समीचीन न्यायकर्ता अनुभवी जज बडी सुलभतासे मायाचारी, असत्यवक्ता, अभियुक्तों ( मुलाजिमों ) के वास्तविक अपराधोंको समझकर निग्रह या अनुग्रह कर देता है इस न्यायशासनको कोई प्रतिष्ठाचार्य या पुरोहितजी महाराज कथममपि नहीं साध सकते हैं। खुफिया पुलिसके प्रवर्तनको घसखोदा गवार नहीं समझ सकता है। वीणाकी ह्रदयतलस्पर्शी झंकारक तत्त्वको भैंस विचारी क्या जाने ? देशभक्त महामना स्वार्थत्यागी पुरुषोंकी समीचीन भावनाओंकी ओर स्वदेशके साथ प्रीति नहीं रखनेवाले विनोदी पुरुषोंका लक्ष्य नहीं जाता है । स्वर्ण रत्नमय भूषणोंकी भी अवज्ञा कर देनेवाली राजमहिषीके परितृप्त हार्दिक भावोंके अन्तस्तलपर विचारी गोंगची, कौडियों या पीतल, कासोंके बने हुये गहनोंको वडे चावसे पहन रही ग्रामीण स्त्री नहीं पहुंच सकती है। कुटुम्ब, परिवार, धन, महल, राजविभूति आदिका परित्यागकर तपस्या कर रहे मुनिमहाराजकी परिणतिओंका परिज्ञान दीन, हीन, भिखारीको नहीं हो पाता है। प्रकरणमें यह कहना है कि लुहार, सुनार, दुकानदार, पण्डित, साधु, व्यभिचारी, चोर, डाकू, कुटिला स्त्री, राजा, किसान, वैज्ञानिक, मल्ल, बाजीगर, माली, आदि सभी जीवोंके कार्योंमें बडे बडे रहस्य छिपे हुये हैं । जड पदार्थो या चेतनपदार्थोकी परिणतियां अनेक सूक्ष्म, अति सूक्ष्म, अतिशयको धार रही हैं । जो जीव जिसका जितना आभिलाषी या अभ्यासी अथवा व्यसनी है, उसमें उतना प्रविष्ट होकर परिज्ञान कर सकता है, सम्पूर्ण पदार्थोंमें अनन्तधर्म हैं । जड या चेतनोंकी सम्पूर्ण स्थूलसूक्ष्मपरिणतियोंको मन्द क्षयोपशमधारी जीव नहीं समझ पाता है । कुल सम्प्रदायसे चले आये सदाचार, असदाचारों, का प्रभाव संतान, प्रतिसंतानों, की आत्माओं पर अवश्य पडता है । पूर्वजन्ममें जिन आत्माओंने उस उस जातिके कर्मोंका उपार्जन किया है वे जीव उन उन आर्य या म्लेच्छ पुरुषोंमें जन्म धार रहे हैं । मध्यमें भी किसी सन्तानी व्यक्तिके आचारोंसे परिणतियें विलक्षण हो जाती हैं । कुल, देश, जाति, क्षेत्र, काल, भाव, की परिस्थितियों के अनुसार आत्माओंकी बडी बडी विशेष परिणतियां हो जाती हैं । झरोखके छेदमेंसे सूर्य किरणोंके पउनेपर जो रज उडती फिरती दीखती है उसका एक कण भी शरीरके ऊपर बोझ