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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
अन्य भी विशेष विशेष रचनाओंको भले प्रकार चारों ओरसे समझ लेना चाहिये। नैगम, संग्रह, व्यवहार, द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, आदि नयोंसे तन्मय होरहे तथा सर्वज्ञप्रतिपादित और गणधर ग्रन्थित द्वादशांग प्रवचनको मूल मानकर उत्पन्न हुये श्रीउमास्वामिकृत सूत्रों करके उपज रहे ज्ञानप्रकाश करके द्वीप आदिकी विशेषताओंको समझ लेना चाहिये, एक विषयको सुनकर उसके सम्बधी अनेक विषयोंकी भावना करने वाले सूक्ष्मबुद्धि सज्जनों करके स्वयं शास्त्रके अर्थोकी पूर्वापर पर्यालोचना द्वारा द्वीप आदिकी विशेष रचनाओंका परिज्ञान कर लेना चाहिये एवम् सर्वज्ञोक्त शास्त्रों या प्रकृष्ट वक्ताओंके वचनके द्वारा निर्णीत किये गये पदार्थोका परिज्ञान करनेवाले प्रकाण्ड विद्वानोंकी उपासना करके भी विस्तारसे ही द्वीप आदिकोंकी विशेषताये जानी जासकती हैं । अभियोगोंको अन्तररहितपनकी विशेषताओं करके मध्य लोककी रचना विशेषोंको जैसे हो तैसे किसी भी प्रकार ( उपाय ) से समझ लेना योग्य है । जैसे कि अधोलोककी विशेष रचनाओंका विस्तार के साथ समझ लेना आवश्यक है। भावार्थ-श्री उमास्वामी महाराजने तृतीयाध्यायमें पहिले छह सूत्रों द्वारा अधोलोकका संक्षिप्त वर्णन लिखा है। किन्तु इन मूलसूत्रों के अनुसार अथवा सर्वज्ञोक्त सम्प्रदाय अनुसार प्रसिद्ध हो रहे अन्य प्रन्योंके परिज्ञान करके अधोलोककी रचनाओंका विस्तृत वर्णन समझ लिया जाता है | उसी प्रकार सिद्धान्तग्रन्थोंकी भावनाको धारनेवाले व्युत्पत्तिशाली सज्जनों करके प्रमाणनयात्मक प्रकाश करके मध्यलोक सम्बन्धी विशेष विशेष रचनाओंका विज्ञान कर लेना चाहिये यद्यपि संक्षेपरूपसे उक्त सूत्रोंमें ही अधोलोक और मध्यलोकका सम्पूर्ण निरूपण हो चुका है। फिर भी विशेष ज्ञप्ति करनेके लिये अन्य आप्तोपज्ञ शास्त्रों के प्रमेयोंकी भावना करनेवाले सज्जनों करके अपनी प्रमाणनयात्मक ज्ञान ज्योति करके गजदंत, यमकादि, जम्बूवृक्ष, स्वयम्भूरमण द्वीप, मध्यलोकके चारों कोन आदिका विचार कर लेना आवश्यक है । प्रवचन और प्रवचनके ज्ञाता पुरुषोंकी परिचर्यासे अनेक अतीन्द्रिय अर्थोका निश्चय कर लिया जाता है। इतना लक्ष्य रक्खा जाय कि कोई अन्यवादी कुचोद्य या कुयुक्तियों द्वारा हम जैनोंके ऊपर अभियोग नहीं लगा सके । सिद्धान्तशास्त्रोंके पूर्वापर विचार और प्रकृष्ट विद्वानोंकी सत्संगतिसे उक्त कार्य सुलभसाध्य हो जाता है। किसी लम्बे चौडे महलको बनानेके लिये पहिले छोटा चित्र बना लिया जाता है । विचक्षण गृहपति उतने ही इंगितसे प्रासादके पूरे प्रमेक्को हृदयंमत कर लेता है। आप्तोपन शास्त्रों द्वारा उत्थित हुई ज्ञानज्योति तो विशेष रूप करके ततोऽपि अधिक परिज्ञप्ति करा सकती है । त्रिलोकसार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थोंका परिशीलन करनेसे मध्यलोकके अतीव सुन्दर मनोहारी दृश्य मानो सज्जनोंके सन्मुख ही उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार इस संक्षिप्त वक्तव्यका उपसंहार कर रहे श्री विद्यानन्दस्वामी मालिनी छन्दः द्वारा अग्रिम वार्तिकको कहते हैं ।
इति कवितविशेषो मध्यलोकस्य सम्यक् । सकलनयमयेन ज्योतिषा सन्निवेशः।