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________________ तत्त्वार्थीचन्तामणिः ૨૮૦ एतेन समुद्राकरसंभूतमणिमुक्ताफलादिदृष्टान्तस्य साध्यधर्मविकलत्वं साधनधर्मविकलत्वं च निराकृतं, तत्रापि सकलकुत्रिमविलक्षणतयेक्षणस्य महेश्वरकृतत्वासंभवस्य च कृतनिश्वयत्वात् । तदेवं निखिलबाधकरहितात् प्रवचनादनुमानाच्च। कृत्रिमलोकव्यवस्थानान्नैक बुद्धिमत्कारणो लोकः शंकनीयः कालादिवत् । । हम जैनाके समर्थनपूर्वक इस उक्त कथनकरके समुद्र या खानोंसे उत्पन्न हुये अकृत्रिम (असली ) मोती, प्रवाल, जम्छाल, मणि, सोना, चांदी, हिंगुल, हरिताल, अभ्रक, ताम्र, वैडूर्य, गेरू, पीलीमिट्टी, कंकण, पत्थर, आदिक दृष्टान्तकी साध्यधर्मसे विकलता और साधनधर्मसे रहितताका निराकरण किया जा चुका समझ लेना चाहिये । क्योंकि उन मणि मुक्ताफल आदिमें भी जीवों के बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ द्वारा किये गये सम्पूर्ण कृत्रिम पदार्थोंसे विलक्षणपने करके दीख जाना स्वरूप हेतु और महेश्वर करके किये गयेपन के असम्भव स्वरूप साध्यका भले प्रकार निश्चय कर लिया गया है अर्थात् — विशिष्ट रचनावाला जगत् ( पक्ष ) किसी भी ईश्वर, ब्रह्म, ब्रह्मा, महादेव या महेश, अल्लाह, आदि बुद्धिमान् आत्मा करके स्वकीय पूर्ण ज्ञान या संभव, असंभव, चाहे जिस किसी भी कार्य करने की इच्छा अथवा कर्त्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं शक्तिरूप पुरुषार्थ द्वारा किया गया नहीं है ( साध्य ), कृत्रिमरूपसे देखे जा चुके कूट आदिसे विलक्षणपने करके दीखना होनेसे ( हेतु ) समुद्र या खान अथवा वन्य वृक्षोंसे समीचीन, अनिर्वचनीय अदृष्ट, जीव, पुद्गल, आदि कारणोंकरके उपजे मणि, मोती, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस प्रकार हम जैनोंद्वारा कहे गये अनुमान के दृष्टान्तमें साध्य और हेतु भले प्रकार घटित हो रहे हैं । तिस कारण इस प्रकार सम्पूर्ण बाधकोंसे रहित हो रहे आगमप्रमाण और अनुमान प्रमाणसे इस लोकके अकृत्रिमपनकी व्यवस्था हो रही है। 1 अतः किसी एक बुद्धिमान् आत्माको कारण मानकर यह लोक उत्पन्न हुआ है इस प्रकारकी शंका कथमपि नहीं करनी चाहिये, जैसे कि काल, आकाश, स्वयं ईश्वर, आदिक पदार्थोंमें जैसे कृत्रिम - पनका संदेह अणुमात्र भी नहीं किया जाता है 1 ततो मध्यलोकस्य निवेशः कथितः । द्वीपसमुद्रपर्वतक्षेत्रसरित्प्रभृतिविशेषः सम्यक् सकलनैगमादिनयमयेन ज्योतिषा प्रवचनमूलसूत्रैर्जन्यमानेन कथमपि भावयद्भिः सद्भिः स्वयं पूर्वापरशास्त्रार्थपर्यायलोचनेन प्रवचनपदार्थविदुपासनेन चाभियोगाविशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेद्यो अधोलोकसन्निवेशविशेषवदित्युपसंहरन्नाह । तिस कारण से उक्त प्रकार श्री उमास्वामी महाराजने यहांतक मध्यलोकके अनादिनिधन सन्नि - बेशका निरूपण कर दिया है । जम्बूद्वीप, धातकीद्वीप, पुष्करद्वीप आदि द्वीप और लवणसमुद्र, कालोदधि, पुष्करवर आदि समुद्र तथा हिमबान्, महाहिमवान, आदि पर्वत एवं भरत, हैमवत आदि क्षेत्र किं च गंगा, सिन्धु, आदि नदियां एवं च पद्म आदि सरोवर तथैव भोगभूमि, कर्मभूमि, आदिकों की
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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