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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
उक्त कार्य उन घट, पट, आदि कार्योसे विलक्षण नहीं हैं जिनको कि बनानेवाले कर्त्ता देखे जा रहे हैं । अतः हम जैन संभावना प्रयुक्त तुम पौराणिकोंके त्रिपुरध्वंस, आदि कार्योंको कथंचित् मान भी लेवें, निर्बाध विषयों के स्वीकार कर लेनेमें कोई हानि नहीं है । बात यह है कि उन स्याद्वादियों के यहां अखिल जगत्के कारण माने जा रहे महेश्वर, विधाता, ब्रह्माद्वैत आदिको ही अभीष्ट नहीं किया गया है दृष्टकर्तृक पदार्थो से तिस प्रकार विलक्षण हो रहे असंख्य योजन लम्बे, चौडे, अतिमहान् , और काठ, ईंट, आदिकी जुडाई करना, खम्भे बनाते हुये बारहद्वारी बनाकर शिखरकी रचना करना इत्यादिक ढंगसे सम्पूर्ण विशेष, विशेष, घटनाओंके आश्रय नहीं हो रहे जगत् स्वरूप स्कन्धका कर्तासहितपना तुम्हारे ईश्वरकी अपेक्षा करके भी असम्भव ही है । क्योंकि जगत् को ईश्वरकृत्यपना साधते हुये तुम वैशेषिकों द्वारा प्रयुक्त किये गये सन्निवेश विशिष्टत्व, अचेतनोपादानत्व आदिक हेतुओंको उस ईश्वरकृतत्व साध्यकी सिद्धिमें प्रयोजकपनका अयोग्य है इसका समर्थन हम जैन पूर्व प्रकरणोंमें कर चुके हैं । अर्थात्-तुम्हारे ईश्वर, नारायण, आदिको हम जैन स्वीकार करते हैं ये भव्य मनुष्य पूर्व कालोंमें अपने अपने माता पिताओंसे उत्पन्न होकर अधिक शक्तिशाली होचुके हैं। भीमावली आदि ग्यारह रुद्र हैं । " भीमावलि जिदसत रुद्द बिसालणयण सुप्पदिट्ठ चला । तो पुंडरीय अजिधर जिदणाभीय पीड सच्चइजो " ये ग्यारह रुद्रों के नाम हैं ॥ उसहदुकाले पढमदु सत्तण्णे सत्त सुविहिपहुदीसु, पीडो संति जिणिंदे वीरे सचइ सुदो जादो" भीमावलि और जित शत्रू ये दो रुद्र भी वृषभनाथ और श्री अजितनाथके कालमें हुये हैं और पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ, वासुपुज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, और शान्तिनाथके कालमें क्रमशः रुद्र, विशा. लनयन, सुप्रतिष्ठ, पुण्डरीक, अजितंधर, जितनाभि, पीठ, ये रुद्र हैं और सत्याकसुत श्री महावीरके कालमें हुये हैं तथा श्री त्रिलोकसारकी गाथानुसार " तिविट्ठदुविठ्ठसयंभू पुरिसुत्तम पुरिससिंह पुरिसादी, पुण्डरीय दत्त णारायण किण्हो अद्धचक्कहरा" इस अवसर्पिणीमें ये नौ नारायण हुये हैं और असग्गीओ तारय मेरमय णिसुंभकइउहंत महू । बलि पहरण रावणया खचरा भूचर जरासंधो " ये नौ प्रतिनारायण हुये हैं तथा " बलदेवा विजयाचलसुधम्मसुष्पहसुदंसणा गंदी, तो णंदिमित्त रामा पडमा उपरि तु पडिसत्त" इस गाथा अनुसार नौ बलदेव हुये माने गये हैं और इस अवसर्पिणीके बियालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटी सागर परिमित चतुर्थ कालमें " चक्की भरहे। सगरो मघवसणक्कुमार संतिकुंथुजिणा, अरजिण सुभोम महापण्डमा हरिसेण जय ब्रह्मदत्तक्खा " ये बारह चक्रवर्ती हुये माने गये हैं इन महापुरुषों के द्वारा किये जाचुके महान् अतिशयित कार्य भी प्रसिद्ध हैं। व्यंतर, भवनवासी, आदि देव निकाय भी प्रमाणों द्वारा निणीत हैं किन्तु अनादि निधन जगत्की रचना ऐसी विलक्षण है जो कि किसी एक बुद्धिमान् द्वारा कथमपि कर्तव्य कोटिमें नहीं आसकती हैं। अतः हमारे साध्यके साथ व्याप्तिको अक्षुण्ण धारे रहना रूप समर्थनसे युक्त होरहा हेतु अपने नियत साष्यका प्रयोजक है । अतः जगत् अकृत्रिम ही सिद्ध हुआ।