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तत्वार्यचिन्तामणिः
अर्थात् — क्षणिकवादी बौद्ध तो ध्वंस मानते हुये ज्ञान, घट,
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पदार्थों का प्रथम क्षण में आदिको क्षणिक मानते
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शब्दमें उस हेतुसे सिद्धि होसकती है। आत्मलाभ मान कर दूसरे क्षणमें ही हैं। जैनोंके यहां एक क्षण या दो, चार, लाखों, असंख्य, क्षणोंतक ठहरने वाली सूक्ष्म पर्याय या स्थूल पर्यायोंको क्षणिक कहा जा सकता है कारण कि अनेक ( संख्यात, असंख्यात ) क्षणोंतक ठहरनेवाले बिजली, बबूला, दीपकालिका, आदि भी जगत् में क्षणिक पदार्थ माने गये हैं । अतः " द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्व " या " अनेकक्षणवर्तिध्वंसप्रतियोगित्व " ये दोनों लक्षण सूक्ष्म समयवत्त पर्याय अथवा कतिपय समयवर्ती स्थूल पर्यायोंकी अपेक्षासे समुचित हैं किन्तु वैशेषिकाने तृतीयक्षणवृत्तिध्वंस - प्रतियोगित्व यानी प्रथम समयमें उत्पत्ति द्वितीय समयमें शब्दकी स्थिति ( श्रुति) और तीसरे क्षणमें नाश हो जाना ऐसा क्षणिकपना शब्द या ज्ञानोंमें स्वीकार किया है। हो, अपेक्षाबुद्धिका चौथे क्षणमें वे ध्वंस होना मानते हैं । वैशेषिक पण्डित पांचवें क्षणमें नष्ट हो जानेवालीं क्षणिक क्रियाओंका चार क्षणतक ठहरे रहना स्वीकार करते हैं । ईश्वर इच्छा या संयोग आदि प्रथम क्षण क्रियाकी उत्पत्ति, द्वितीय क्षणमें उससे विभाग, तृतीय क्षणमें पूर्व संयोगनाश, चतुर्थ क्षण उत्तरदेशसंयोग पुनः पांचवे क्षणमें क्रियाका नाश होजाता है । यों क्षणिकत्व के कतिपय अर्थ हैं । इसी प्रकार नित्यके भी कूटस्थ नित्य, सातिशय नित्य, परिणामी नित्य, धारा प्रबाह नित्य, बीजाङ्कुर न्याय अनुसार नित्यत्व, अनादि सान्त नित्यत्व, सादि अनन्त नित्यत्व, ऐसे कतिपय अर्थ हो सकते हैं । अतः शब्दका अनित्यपना साधनेपर नैयायिकोंके ऊपर हम मीमांसकोंने सिद्धसाधन और विरुद्ध दोष उठाये हैं । इसी प्रकार साध्य में विकल्प लगा कर वन्दिमान् धूमात् आदि अनुमानोंमें भी उक्त दोष लगाये जा सकते हैं। जैसे कि नैयायिकोंने जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन या विरुद्ध हेत्वाभास उठा दिये हैं ।
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यदि पुनर्नित्यमात्रविलक्षणतयेक्षणादिति हेतुरिष्टमेव क्षणिकत्वाख्यमनित्यत्वं साधयति, ततो न सिद्धसाधनं परस्य नापि विरुद्धो हेतुरिति मतं तदा दृष्टकृत्रिमसामान्यविलक्षणतयेक्षणादिति हेतुरस्मदादिकर्त्रपेक्षयास्मद्विलक्षणेश्वरादिकर्त्रपेक्षयापि वाऽकृत्रिमत्वं साधयतीति कथं नैयायिकस्यापि सिद्धसाधनं विरुद्धो वा हेतुः स्यात् ।
फिर नैयायिक पण्डित यदि मीमांसकों के प्रति यों कहें कि सामान्य नित्यसे विलक्षणपने करके दीखना इस प्रकारका हेतु तो शब्दमें हमारे इष्ट हो रहे ही दो क्षण या तीन क्षणतक ठहरना नामके अनित्यपनको साथ देता है । तिस कारणसे मीमांसकों की ओरसे दिया गया सिद्ध साधन दोष दूसरे हम नैयायिकोंके ऊपर नहीं आ सकता है । तथा हमारा हेतु विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि हम नैयायिक तुम मीमांसकों के यहां सिद्ध हो रहे सातिशय नित्यपनको शब्दमें नहीं साध रहे हैं । तथा हमारा हेतु अनुकूल साध्य के साथ हो रही व्याप्तिको धारता है । इस प्रकार नैयायिकोंका मन्तव्य होय तब
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