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________________ ४८३ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके तो हम जैन भी कहते हैं कि देखे जा रहे सामामान्यरूपसे सम्पूर्ण कृत्रिम पदार्थोसे विलक्षणपने करके दीखना इस प्रकारका हमारा हेतु अस्मदादिकर्ताओंकी अपेक्षासे अथवा हम लोगोंसे विलक्षण हो रहे महेश्वर, ब्रह्म, प्रकृति, ब्रह्मा, आदि कर्ताओंकी अपेक्षासे भी नहीं कृत्रिमपनको जगत्में बहुत अच्छा साध देवेगा भले ही उन उन कतिपय पदार्थोके कर्ता अनेक जीवात्मायें हैं । किन्तु एक किसी ईश्वर या प्रकृतिकी अपेक्षा जगत् कृत्रिम नहीं है । ऐसी दशामें नैयायिककी ओरसे भी हमारे ऊपर सिद्धसाधन दोष कैसे हो सकता है ? और हम जैनोंका निर्दोष हेतु " दृष्टकृत्रिमविलक्षणतय। ईक्षण " भला विरुद्ध हेत्वाभास कैसे हो सकता है ? । यानी नहीं हो सकता है। ___ यथैव हि निरतिशयनित्यात् सातिशयनित्याच वैलक्षण्यमुत्पादकविनाशकारणकत्वं प्रतीयमानं शब्दे खेष्टं क्षणिकत्वं साधयेत्, तथैवास्मदादिकृतात्कूटमासादादेरीश्वरादिकृताच त्रिपुरदाहांधकासुरविध्वंसनादेः सामान्यतो वैलक्षण्यं घटनादिविशेषानाश्रयत्वं जगति समीक्ष्यमाणं सकलबुद्धिमत्कपेक्षयैवाकृत्रिमत्वं साधयतीति सर्व निरवद्यं । जिस ही प्रकार मीमांसकोंके ऊपर घुडक कर नैयायिक यों कह सकते हैं कि सांख्योंके यह माने गये पुरुषके समान निरतिशय नित्य पदार्थ और मीमांसकोंके यहां माने गये जीवात्माओंके समान सातिशय नित्य पदार्थ अथवा और भी किसी प्रकारके नित्य पदार्थोसे विलक्षणपना यानी सृष्टिप्रक्रिया और प्रलयप्रक्रिया अनुसार सबकी उपादेय उत्तर पर्यायका उत्पादक होते हुये पुनः उसके विनाशका कारण होजाना यहां " नित्यविलक्षणतया ईक्षण" हेतु शब्दमें भले प्रकार प्रतीत किया जारहा उस हमारे अभीष्ट होरहे दो तीन क्षणतक ठहरना स्वरूप क्षणिकत्वको साध देवेगा । हम जैन भी नैयायिकोंके सन्मुख आत्मगौरव सहित कह सकते हैं कि उस ही प्रकार हम तुम मिस्त्री, बढई, कारीगर आदि द्वारा बनाये गये स्तूप, चबूतरा, चौपारे, कोठियां गृह, झोंपडे, चौकी, मन्दिर आदि पदार्थोसे और तुम पौराणिकोंके मतानुसार मान लिये गये कार्यविशेषोंके कर्ता ईश्वरस्वरूप महादेव, विष्णु, ब्रह्मा, आदि करके किये गये त्रिपुरका दाह, अन्धकासुरका विध्वंसन करना, गंगाका धारण, कामदेवका भस्म करना, आदि या चक्र धारण, कंसमर्दन, कैटभका जीतना, शिशुपालवध, अथवा तपस्या द्वारा चतुर्मुख बनाना, हंसपर चढ लेना, आदि कार्योंसे सामान्यतया विलक्षणपना यानी काठ, ईट, लोहे, चूनाका ठीकठीक जोडना, छप्पर बना लेना, शस्त्र धारण कर लेना, तपस्या कर लेना आदिक विशेष घटनाओंका आश्रयरहितपना भले प्रकार जगत्में देखा जारहा है यह हम जैनोंका हेतु हमारे अभीष्ट साध्य होरहे सम्पूर्ण ही बुद्धिमान कर्ताओंकी अपेक्षा करके अकृत्रिमपनको जगत्में साध देता है । भावार्थ-पौराणिकोंके विचार अनुसार यदि शिवजीने त्रिपुरका दाह कर दिया या अन्धक राक्षसका विध्वंस कर दिया, गजासुरको मार डाला इत्यादिक क्रियायें कथंचित् थोडी देरके लिये मानी जासकती हैं । विष्णु भगवान्ने नृसिंह, कृष्ण, आदि अवतार द्वारा हिरण्यकशिपु, पूतना,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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