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तत्त्वार्यश्लोक वार्तिके
तेपि न न्यायविदः, अनित्यः शब्दो नित्यविलक्षणतया प्रतीयमानत्वात् कळशादिवदित्यादेरप्येवमगमकत्वप्रसंगात् । शक्यं हि वकुं यदि निरतिशयनित्यविलक्षणतयेक्षणात्सातिशयनित्यत्वमनित्यत्वं साध्यते तदा सिद्धसाध्यता " तेनैवं व्यवहारात् स्यादकौटस्थ्येपि नित्यतेति " स्वयं मीमांसकैरभिधानात् । अनेकक्षणत्रयस्थायित्वं साध्यं तदा विरुद्धो हेतुस्तद्विपरीतस्य सातिशयनित्यलक्षणस्यैवानित्यत्वस्य ततः सिद्धेरिति ।
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अब आचार्य महाराज समाधान करते हैं कि वे नैयायिक पण्डित भी न्यायमार्गको नहीं समझ रहे जैसा नाम वैसा काम करनेवाले नहीं है । देखिये तुमने शब्दको अनित्य सिद्ध करनेके लिये यह अनुमान बनाया है कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्यदल ) क्योंकि नित्य पदार्थोंसे विलक्षणपने करके प्रतीत किया जा रहा है ( हेतु ) कलसा, रोटी, दाल आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) अथवा " पर्वतो वन्हिमान् धूमात् महानसवत् ” इत्यादिक असिद्ध हेतुओं को भी इस प्रकार कुचोद्योंद्वारा तुम्हारे यहां अगमकपनेका प्रसंग होगा यहां भी शब्दको नित्य माननेवाले मीमांसको करके यों कहा जा सकता है कि नैयायिक उक्त अनुमानद्वारा यदि निरतिशय नित्य पदार्थोंसे विलक्षणप करके दीख जाना हेतुसे सातिशय नित्यत्व स्वरूप अनित्यत्वको साध रहे हैं तब तो सिद्धसाध्यता दोष है । हम मीमांसक भी शब्दको कूटस्थ नित्य नहीं मानते हैं अग्निका संयोग हो जानेपर अनित्यजल अपने शीत अतिशयको छोड देता है और उष्णताका आधान कर लेता है । किन्तु कूटस्थ नित्य पदार्थ ऐसा नहीं कर सकता हैं । कूटस्थका अर्थ " अनाधेयाप्रदेयातिशय " है । जो पदार्थ चाहे कितने भी प्रेरक कारणों का सम्प्रयोग हो जानेपर उनके धर्मों अनुसार धर्मान्तरों को ग्रहण नहीं करता है और अपने उपात्त कर लिये गये अतिशयोंको छोडता भी नहीं वह वह कूटस्थ है जैसे कि आकाश किन्तु नित्य हो रहा भी शब्द कूटस्थ नहीं है वैदिक, लौकिक, महान् अभिव्यंजक, अल्प अभिव्यंजक ध्वनि, कण्ठ, तालु, आदि परिस्थितियों के वशरावत हो रहा परिणामी नित्य है । अतः ऐसे सातिशय नित्यस्वरूप अनित्यत्व की सिद्धि करनेपर हम मीमांसक तुम नैयायिका के ऊपर " सिद्धसाधन " दोष उठाते हैं । स्वयं मीमांसकोंने अपने ग्रन्थोंमें यों कहा है कि संकेत काल और व्यवहारकालमें वहका वही व्यापक हो रहा शब्द नित्य है । क्योंकि उस संकेतगृहीत शब्द करके ही मैं शाब्द बोध करनेवाला पुरुष यह व्यवहार करता हूं कि यह गौ है, अमुक घट है इत्यादि, अतः कूटस्थपना नहीं होते हुये भी शब्दको नित्यपना युक्तिप्राप्त है । व्यंजकोंकी तीव्रता, मन्दता, अल्पीयत्स्व, तत्तद्देशीयत्व आदिकी अपेक्षा शब्दमें कुछ अतिशयों की संक्रान्ति होना अभीष्ट है ऐसे अनित्यत्वका हमने खण्डन कहां किया है ? हां अनेक तीन तीन क्षणों में स्थायीपन यदि अनेक शब्दोंका अनित्यपना साधा जाता है तब तो तुम नैयायिकों का हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि उस तुम्हारे सर्वथा अनित्यत्व साध्यसे विपरीत होरहे सातिशय नित्यस्वरूपही अनित्यपन की