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तार्थीचन्तामणिः
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नहीं है । उसी प्रकार हम नैयायिक भी कह सकते हैं कि शरीर, इन्द्रिय, राग, द्वेष आदि के करण कारक जैसे वसूला, दण्ड, तुरी, आदिक नहीं हैं उसी प्रकार इन करणोंसे विलक्षण ह अदृष्ट भी शरीर आदिका करण नहीं होसकेगा किन्तु यह अदृष्टका करण नहीं बन सकना हम, तुम, दोनोंको इष्ट नहीं है । साधारण व्यक्तियोंको जगत्का कर्तृत्व नहीं होनेपर भी असाधारण परमात्माको जगत्का कर्तृत्व सध सकता है । ईश्वरको नहीं माननेवाले जैन या बौद्ध यों भय करें कि उस ईश्वर या अदृष्टकी अपेक्षा करके यदि अर्थों में कृत्रिमपना माना जायगा तो सभी स्थानों पर उन पदार्थों के कृत्रिमपन और अकृत्रिमपन के पृथक् पृथक् हो रहे व्यवहारका विरोध हो जायगा । सभी पदार्थ कृत्रिम बन बैठेंगे । इसपर हम नैयायिक यों समझाते हैं कि इस भीतिकी आशंका नहीं करना ईश्वरकी अपेक्षासे कृत्रिमपना होते हुये भी उम पदार्थों के कृत्रिमपनके या अकृत्रिमपनके व्यवहारका विरोध नहीं हो पाता है क्योंकि जिन पदार्थोंमें कत्ताओं के व्यापार देखे जा रहे हैं । उसकी अपेक्षा करके किन्हीं किन्हीं घट, पट, भूषण, गाडी, गृह आदि पदार्थोका कृत्रिमपने करके संसार में व्यवहार हो रहा है । और इन पदार्थोंसे न्यारे सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी, शरीर, पर्वत, आर्दिक पदार्थोंको इन्द्रयोंके अगोचर हो रहे विशेष कत्ता के व्यापारकी अपेक्षा करके अकृत्रिमपन रूपसे व्यवहार हो रहा है । अर्थात् — ईश्वरको उनका कर्त्तापन होते हुये भी वे अकृत्रिम हैं । ईश्वरको जगत्का कर्त्ता नहीं माननेवाले जैन, चार्वाक, बौद्ध, वादियों करके भी इसी ढंगसे कृत्रिमपन और अकृत्रिमपनका स्वीकार करना अनिवार्य पडेगा अन्यथा यानी दृष्टकर्तृक पदार्थोंको ही कृत्रिम मानते हुये यदि अतीन्द्रिय कर्त्ता द्वारा उपज रहे पदार्थोंको अकृत्रिम नहीं माना जायगा तब तो इस अनीश्वर वादीके यहां उन उन शरीर, इन्द्रिय, आदि कार्योंके उपभोक्ता प्राणियों के पुण्य, पाप, विशेषको कारण मानकर जन्म ले रहे सम्पूर्ण उत्पत्तिमान् कार्योंमेंसे किन्हीं विशेष कार्योंमें ही भला अकृत्रिमपनेका व्यवहार कैसे समुचित हो सकेगा ? तुम ही बताओ तुम जैन भी तो सीपके जीवके पुण्य, पाप, या पुरुषार्थसे उपजे हुये असली मोतीको अकृत्रिम मान रहे हो तिस कारणसे हम नैयायिक कहते हैं कि जैन विद्वान् यदि हम आदि कर्त्ताओंकी अपेक्षासे जगत्को अकृत्रिमपना उक्त अनुमानसे ऊपर सिद्धसाधन दोष है । हम ईश्वरवादी नैयायिक भी तो अस्मद सकर्तृक नहीं मानते हुये अकृत्रिम मान रहे हैं हम लोगों से विलक्षण हो रहे कर्त्ता विशेष ईश्वरकी अपेक्षा करके तो उस जगत् को यदि अकृत्रिम साधा जायगा तब तो जैनोंका दृष्टकृत्रिमविलक्षणतया ईक्ष्यमाणत्व " हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है क्योंकि प्रकरण प्राप्त अकृत्रिमत्व साध्यसे विपरीत हो रहे अस्मद् आदि कर्त्ताओं की अपेक्षा करके ही अकृत्रिमपनेकी उस हेतुसे सिद्धि हो पाती है हम लोगों से विलक्षण ईश्वर कर्त्ता की अपेक्षा भी अकृत्रिमपनकी उस हेतुसे सिद्धि नहीं हो सकती है अत: जैनों का हेतु साध्यसे विपरीत हो रहे साध्याभाव के साथ व्याप्तिको रखनेवाला होनेसे विरुद्ध हुआ । यहाँतक कोई नैयायिक पण्डित कह रहे हैं ।
साध रहे हैं । तब तो जैनों के आदिककी अपेक्षा जगत्को
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