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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके भिन्न आकाश, भिन्न काल, सहितपने करके जगत्का दीख जाना अपने हेतुका अर्थ कहते तब तो पुराने कुर्ये, खण्डहरोंसे व्यभिचार आसकता था क्योंकि पुराने खण्डहर भिन्न देशीय भिन्न कालीन और विभिन्न आकार वाले हैं किन्तु वे अकृत्रिम नहीं हैं। भाई हम तो हेतुका शरीर बुद्धिमान् कर्त्तासे होनेवाली विचारपूर्वक रचनाओंका अनाधार होकर दीख रहापन कहते हैं । तिस कारणसे हमारा यह दृष्टकृत्रिम पदार्थोंसे विलक्षणपने करके देखा जा रहापन हेतु सम्पूर्ण दोषोंसे रहित है । अतः अपने अकृत्रिमत्व नियत साध्य को साध डालता है । यहां अब किसी कुतर्को 1 अवकाश नहीं रहता है । १७८ ननु चेदस्मदादिकर्तृककूटादिविलक्षणतयेक्षणं जगतोस्मदादिकर्त्रयेक्षयैवाकृत्रिमत्वं साधयेत् मणिमुक्ताफलादीनामिव समुद्रादिप्रभवानां न पुनरस्मद्विलक्षणमहेश्वरकर्तृविशेषापेक्षया तदुपभोक्तृप्राण्यदृष्टविशेषापेक्षयाप्यकृत्रिमत्व प्रसंगात् । न च तदपेक्षया कृत्रिमत्वेऽपि तेषां सर्वत्र कृत्रिमाकृत्रिमत्वव्यवहारविरोधः प्रतीतकर्तृव्यापारापेक्षया केषांचित्कुत्रिमत्वेन व्यवहरणात् । परेषामतींद्रियकर्तृव्यापारापेक्षणेनाकृत्रिमतया व्यवहृतेरनीश्वरवादिनाप्यभ्युपगमनीयत्वात्, अन्यथास्य सर्वत्रोत्पत्तिमति तदुपभोक्तृप्राण्यदृष्टविशेषहेतुके कथमकृत्रिमव्यवहारः कचिदेव युज्येत । ततोऽस्मदादिकर्त्रपेक्षया जगतोऽकृत्रिमत्वसाधने सिद्धसाधनमस्मद्विलक्षणेश्वरकर्तृविशेषापेक्षया तु तस्य साधने विरुद्धो हेतुः साध्यविपरीतस्यास्मदादिकर्त्रपेक्षयैवाकृत्रिमत्वस्य ततः सिद्धेरिति केचित् । नैयायिक या पौराणिक अपने ईश्वर कर्तृवादको करने के लिये पुनः अनुनय करते हैं कि आप जैनोंने जो इस हेतु द्वारा साध्यको साधा है वह अस्मदादिक राज, बढई, मिस्त्री, आदिक अर्त्ताओं द्वारा बनाये गये स्तूप, मीनार, आदिकसे विलक्षणपने करके दीखना तो जगत्को अस्मद् आदिक कर्त्ता - ओंकी अपेक्षा करके ही अकृत्रिमपनको साध सकेगा । जैसे कि समुद्र, खान, आदिसे उपजे हुये मणि1 मुक्ता आदिकोंके कर्त्ता अस्मद् आदिक नहीं होसकते हैं । अर्थात् - हम सारिखे अल्पबल, अल्पज्ञान, वाले जीव जगत् के कर्त्ता नहीं होसकते हैं यह हम नैयायिकों को भी अभीष्ट है, किन्तु फिर हम लोगों से विलक्षण होरहे महेश्वर नामक विशेष कर्त्ताकी अपेक्षासे जगत्का अकृत्रिमपना नहीं साधा जा सकता है । अर्थात्-हम लोग भले ही जगत् के कर्त्ता नहीं होय फिर भी हमसे विलक्षण हो महान् ईश्वर तो जगत्‌का कर्त्ता सुलभतया सध जावेगा । यदि जैन विद्वान देखे जारहे बढई, कोरिया, कुम्हार, अध्यापक, वैज्ञानिक, इञ्जिनियर, आदिक एकदेशीय कर्त्ताओंसे विलक्षण होरहे महेश्वरको जगत्का कर्त्ता नहीं मानेंगे तब उन शरीर, इन्द्रिय, वृक्ष, भूषण, वस्त्र, आदिक कार्य पदार्थों का उपभोग करने वाले प्राणियों के अदृष्ट विशेष ( पुण्य पाप ) की अपेक्षा करके भी जगत् को अनुत्रिम पनेका प्रसंग होजायगा । अर्थात् - जैसे जैन जन यों झट कह बैठते हैं कि जगत् के कर्त्ता हम आदिक कोई भी संसारी नहीं हैं, हमसे विलक्षण हो रहा ईश्वर भी जगत्का विधायक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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