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' तत्त्वाचिन्तामणिः
करके देखे जा रहेपनको ही अकृत्रिमपनकरके देखा गयापन झट कह देवें जिससे कि " शब्द अनित्य है नित्य पदार्थोके धर्मकी अनुपलब्धि होनेसे " या पर्वत अग्निमान् है अग्निवाला होनेसे इत्यादिक हेतुओंके समान हमारा दृष्टकृत्रिमविलक्षणतया ईक्ष्यमाणत्व हेतु " साध्यसम" नामक दोषसे ग्रसित होजाय ! तथा केवल भिन्न देश, भिन्न काल और भिन्न आकार सहितपने करके देखे गयेपनको भी वह दृष्ट कृत्रिम विलक्षणतया ईक्ष्यमाणत्व हम नहीं कह रहे हैं जिससे कि पुराने कोठी, किले, गळा खंडहर, खेरा, आदि करके व्यभिचार होजाय । तो फिर हम जैन क्या कह रहे हैं ? इसका उत्तर यह है कि काठ, ईंट, लोहा, गाटर आदिकी घटना ( रचना ) विशेषके नहीं
आश्रय होरहे पन करके देखा गयापन ही जगत् पक्षका कृत्रिम होकर प्रतीत होरहे कूट आदिसे विलक्षणपने करके देखा गयापन हेतु हम जैनों करके कहा जारहा है । अर्थात्-हमारा हेतु साध्य सारिखा नहीं है जिससे कि अबतक साध्यकी असिद्धि होनेसे प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध दोषवान् होजाय क्योंकि बुद्धिमान् कर्ताद्वारा होसकनेवाली विशेष विशेष ढंगकी रचनाओंका आश्रय रूपसे जगत् नहीं देखा जारहा है। नदियां, टेढी, मेढी बह रही हैं । पर्वत ऊंचे, नीचे, कोई शीतल कोई उष्ण है । पृथिवी कहीं लाल, पीली, काली, होरही है, समुद्रमें भी पानी बरसता है, मछ, दाढी मुडवा देने वालोंके बाल पुनः उपज आते हैं कांखमें बाल व्यर्थ उपजा दिये हैं, कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि होरही है । अनेक स्थलोंपर पापी जीव आनन्द भोग रहे हैं जब कि पुण्यात्मा सज्जन पुरुष अनेक दुःखोंको झेल रहे हैं । ईश्वरका निषेध करने वालोंका मुंह नहीं बन्द किया जाता है। सर्वज्ञ, व्यापक, दयालु भी ईश्वर भला चोर, व्यभिचारी, हिंसकोंके हृदयमें बुरे भावोंको क्यों उत्पन्न करता है ? जब कि वह सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान स्वीकार किया गया है। कोई भी हितैषी पिता या राजा अपने पुत्र या प्रजाको जान बूझकर अनर्थोंमें ढकेलकर पुनः उसको दण्ड देनेके लिये अभिलाषुक नहीं रहता है अन्यथा यह सब उत्तरदायित्व पिता या राजाके ऊपर ही पडेगा । कृतकृत्य ईश्वर कहां बैठकर किन कारणोंसे किस लिये जगत्को बनाता रहता है ? इन आक्षेपोंका सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलता है। सृष्टि, प्रलय, उत्पत्ति विनाश, कहीं वृद्धत्व, किसीमें युवत्व, आदि अनेक विरुद्ध कार्योको एक ईश्वर युगपत् कथमपि नहीं कर सकता है । जगत्में कहीं साधु पुरुष या पतिव्रता स्त्रियोंपर विपत्तियों के पहाड ढाये जारहे हैं । किसी किसी धर्मात्माके आवश्यकीय एक पुत्र भी नहीं है। कतिपय कसइयोंके घर जब कि कुटुम्ब, धन, सम्पति, प्रभुतासे, भरपूर हैं गरीबों को सताया जारहा है । धार्मिकवादका तिरस्कार कर पूंजीवादके गीत गाये जारहे हैं । गेंहुओंके साथ निर्दोष भिनुवाभी पिस रहे हैं । स्थान स्थानपर शोक, अरति, के कारण बढ रहे हैं । अतः कृत्रिम कूट आदिसे विलक्षणपना ही जगतका अकृत्रिमपना नहीं है जिससे कि हेतु और साध्य दोनों एकसे होजाय किन्तु बुद्धिमान् सर्वज्ञ द्वारा होने वाली रचना विशेषके आधार नहीं होरहेपन करके जगवका दीखना ही हमारे पूर्वोपात्त हेतुका अर्थ है दृष्टकर्तृक पदार्थोकी अपेक्षा भिन्न देश,