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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिक ४७६ सहितपनकी समीचीन प्रतीति नहीं होने करके अकृत्रिमपन और उन कृत्रिमसे विलक्षणपनका चारों ओरसे स्वरूपपरिज्ञान कर लेता ही है जैसे सूक्ष्मविचार बुद्धिद्वारा नकली मणि, मोती, घृत आदिसे असली मणि, मोती, आदिका विलक्षणपना या अकृत्रिमपना जान लिया जाता है उसी प्रकार सकर्तृक देखे जा रहे और काठ चतुःकाष्ठी ( चौखट ) ईंट, चूना, छप्पर, किवाड, मनखण्डा, पुल, पहिया आदिक विशेष अवयव घटनाओंके आश्रय हो रहे प्रासाद, कुये, नहर, बम्बा, गाडी, आदिकसे पृथिवी, पर्वत, सूर्य, दर्रे, घाटियां, समुद्र, नदियां, आदिकों का उन कृत्रिम गृह आदि के विपरीत प्रतिपत्ति हो जानेसे विलक्षणपनको यह नैयायिक समझने के लिये भी समर्थ हो जाता है इतनी सुलभ सामग्री या दृष्टान्तके मिल जानेपर भी यदि नैयायिक उन दृष्टकर्तृक कोठी आदिकोंसे पर्वत आदिकों के इस प्रसिद्ध विलक्षणपनको नहीं समझ सकेगा तब तो इसकी चित्तवृत्ति एक खोटे. अभिनिवेश से युक्त ही मानी जा सकती है । समुचित वस्तुको यदि कोई कदाप्रहवश नहीं समझ पावे तो इसमें समझ देनेवाले वक्ता मा वस्तुका क्या दोष है ? पूरा मूल्य देकर भले ही नकली अल्पमूल्य चीजोंको मोल लेकर अविचारी या पोंगा बने रहो । असली पदार्थों को भोगनेवाला परीक्षक विद्वान् कभी भी ऐसी अविचारित पोलम पोल क्रियाको अभिरुचित ( पसन्द ) नहीं करता है इस कारण हमारा हेतु असिद्धहेत्वाभास नहीं है अन्यथा हीरा, पन्ना, मोती, मूंगा आदिमें अकृत्रिमपनके व्यवहारकी क्षति हो जानेका प्रसंग होगा और उन पुराने गृहों के समानही उन अकृत्रिम मोती, मणि आदिमें उन कृत्रिम मणि, मोती आदिकसे विलक्षणपनकी भी असिद्धि हो जायगी । अर्थात् वैशोषक भूधर आदिकों को कृत्रिम मानते हुये यदि महल, कोठी आदिकसे विलक्षणपना पृथिवी, पर्वत आदिकमें नहीं मानेंगे तो समुद्र या खानसे उत्पन्न हुये असली मोती, मणियों को भी अकृत्रिमपना या कृत्रिमोंसे विलक्षणपना ये नहीं साध पायेंगे भ्रान्त, अभ्रान्तका विवेक उठ जायगा । यह सोनेका मूल्य देकर मुलम्मा मोल लिया जा रहा है पामर ( गंवार ) पुरुष भी मट्टी, पत्थर, पीतल, खड आदि के बने हुये सांप, सिंह, घोडा, हाथी, छौरा आदिकसे असली सांप, सिंह, हाथी आदिको विलक्षण और अकृत्रिम माननेके ये उद्युक्त रहता 1 न हि वयं दृष्टकृत्रिमकूटादिविलक्षणतयेक्ष्यमाणत्वम कृत्रिमतयेक्ष्यमाणत्वं वच्मो येन साध्यसमो हेतुः स्यादनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यादिवत् । नापि भिन्नदेशकालाकारमात्रतयेक्ष्यमाणत्वं तदभिदध्महे येन पुराणमासादादिनानैकांतिकः । किं तर्हि १ घटनाविशेषानाश्रयतयेक्ष्यमाणत्वं जगतः प्रतीतकुत्रिमकूटादिविलक्षणतयेक्ष्यमाणत्वमभिधीयते । ततो निरवद्यमिदं साधनं । हम जैन ऐसे प्रतिभारहित या अदार्शनिक नहीं हैं जो कि कर्त्तासे जन्य होकर दीख रहें कृत्रिम कूट ( ऊँचा धम्मा, मीनार, ठोस गुम्मज) गृह, खिलोने आदिसे क्लिक्षणपने
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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