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तत्वार्थचिन्तामणिः
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उपादान शक्तियों के प्रत्यक्ष रूपसे परिज्ञापक, अशरीर, व्यापक, एक नहीं किये जा चुके मणि, हीरा, पन्ना, सोना, चांदी, काठ, कंकण, पत्थर, कस्तूरी आदि पदार्थोंमें कृत्रिमविभिन्नत्व ( विलक्षणत्व ) हेतुसे नहीं कृत्रिमपना है । तिस ही प्रकारके अनेक पदार्थोंके स्कन्ध रूप हो रहे स्वरूप जगत् का कृत्रिमपना भी सम्भावनी नहीं है । अतः पक्षमें ठहर जानेसे हेतुके स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास दोष नहीं लगा ।
ऐसे विशिष्ट कर्त्ता द्वारा
मट्टी, मोती, गोलोचन, साध्य सम्भवने योग्य
मणिमुक्ताफलादीनां केषांचित्कृत्रिमत्वं व्रीहिसंमर्दनादिना रेखादिमत्त्वप्रतीत्या स्वयमुपयन् परेषां समुद्राकरोत्थानां तथा रेखादिमत्त्वा संप्रत्ययेना कृत्रिमत्वं च तद्वैलक्षण्यमालक्षयत्येव । तद्वद् दृष्टकर्तृकमासादादिभ्यः काष्टेष्टकादिघटना विशेषाश्रयेभ्यस्तद्विपरीताकारमतिपत्त्या भूभूधरादीनां वैलक्षण्यं प्रतिपत्तुमर्हति च न चेदभिनिविष्टमना । इति नासिद्धो हेतुर्मणिमुक्तादावकत्रिमत्वव्यवहारक्षतिप्रसंगात् तद्वैलक्षण्यस्यापि तद्वदसिद्धेः ।
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प्रायः सम्पूर्ण वस्तुओं की प्रतिकृति ( नकल) करनेवाले इस युगमें नकली मोती, हीरा, पन्ना, माणिक्य ( इमीटेशन ) आदि बनने लगे हैं । ऐसे मणि, मुक्ता, आदिकों को हम भी स्वतंत्र बुद्धिपूर्वक चाहे जैसे छोटा, बडा, बना देनेवाले कारीगर पुरुष करके कृत्रिमपना स्वीकार करते हैं । धानमें मिलाकर रगडनेसे यदि रेखा या कोई रगड़का चिन्ह पड जाय तो उससे उन माण, मोती, माणिक आदिके नकलीपनका परिज्ञान हो जाता है । और भी रत्नपरीक्षा के उपायों द्वारा माणिक, मोती, 1 आदि के नकलीपन या असलीपनकी परीक्षा कर ली जाती है । जिससे कि कैई नकली पदार्थों के 1 कृत्रिमपन और अनेक असली पदार्थों के अकृत्रिमपनका परिज्ञान कर लिया घृत, दूध, चून, खांड, वस्त्र भी नकली पदार्थोंसे बने हुये आने लगे हैं नकली बना दिये गये हैं । जो कि मनुष्योचित कतिपय क्रियाओं को भी स्वर्ग, नरक यहांतक कि मोक्षको भी नकली बनाले तो कोई आश्चर्य नहीं जमाने में ) एक इन्द्र नामका राजा इस भरत क्षेत्र में ही स्वर्गकी पूरी नकल बनाकर स्वयं इन्द्र बन बैठा था । कैदखाने या दुःखियों के घर तो अधोलोकस्थ नरकोंसे उपमेय हैं । पुण्यशाली धनिकों के स्थान स्वर्ग कल्पित किये जा सकते हैं । निराकुल साधुओं की तपोभूमिको कोई कवि एक देशसे मोक्षस्थान की कल्पना कर सकता है । किन्तु इन सब उपचरित या अनुपचरित पदार्थोंके गौण, मुख्यपनकी परीक्षा के उपाय विद्यमान हैं । प्रकरणमें यह कहना है कि स्वयं नैयायिक पण्डित भी किन्हीं किन्हीं मणि, मोती, घृत आदि पदार्थोंका धान्यों के साथ रगडना, उष्ण जलमें तपाना आदि क्रियाओं करके रेखा पड जाना, खुरसट लग जाना, पानीमें विखर जाना आदि सहित पनकी प्रतीति हो जाने करके कृत्रिमपनको स्वीकार कर रहा है वह नैयायिक ऐसी दशामें समुद्र या खानसे उत्पन्न हुये दूसरे मोती, मूंगा, हीरा, पन्ना, मणि, आदिकोंके तिस प्रकार रेखा आदिसे
जाता है । आजकल तो
सुना है कि मनुष्य भी
करते हैं । कलको कोई
है । रामचन्द्रके युगमें