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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
" न मांसभक्षणे दोषो न मये न च मैथुने " ऐसे मनुस्मृतिके वाक्य मिलते हैं। गृह्यसूत्र नासका ग्रन्थकी यही दशा है । क्वचित् गोमेध, नरमेधतकका विधान किया गया है । वेदमें असम्बद्ध या लज्जाजनक विषयोंकी भी कमी नहीं है । पच्चीसवां अध्याय सातवां मंत्र इस प्रकार है कि " पूषणं वनिष्ठुनान्धाहीनस्थूलगुदया सर्मान्गुदाभिविन्दुत आन्त्रैरयो वस्तिना वृषणमांडाभ्यां वाजिन
1 शेपेन प्रजा । रेतसा चाषान्पित्तेन प्रदरान्यायुना कूक्ष्माच्छकपिण्डैः " आठवां नौवा मंत्र भी ऐसाही घृणित है। वेदमें असम्बद्ध प्रलाप भी पर्याप्त है । युजुर्वेद अठारहवें अध्याय " एका च मे तिस्रश्च ये पञ्च च ये पञ्च च ये सप्तच ये स्प्त च ये इत्यादि या चतस्रश्च मेऽष्टौ च ये द्वादश च ये द्वादश इत्यादि इन चौबीसवें पच्चीसवें मंत्रोंमें एकसे आगे दो दो संख्या बढाकर अथवा चारसे आगे चार चार संख्या बढाकर न जाने कौनसे गम्भीर अर्थका प्रतिपादन किया गया है ? इसके आगे छब्बीसवें, सत्ताईसवें मंत्रमें भी गर्हणीय असंगत विषयका नंगा प्रदर्शन है । यजुर्वेदसे तीसवां अध्याय नौवां मंत्र " अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्रा धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मरवाय त्वा मरवस्य त्वा शीर्णे। अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्रा धूपयामि देवयजते पृथिव्याः । मखाय त्वा मरवस्य त्वा शीणे । मखाय त्वा मरवस्य त्वा शीणे मरवाय त्वा मरवस्य त्वा शीर्णे ।" द्वारा तीन महाबीरोंको तीन मंत्रों द्वारा अवकी विष्टा करके धूप देनेसे न जाने कौनसी शुद्धिका रहस्य निकाला गया है। इत्यादि । प्रकरणमें यह कहना है कि नैयायिक या वैशेषिक पण्डित वेदको ईश्वरका बनाया हुआ स्वीकार करते हैं। पौराणिक पण्डित स्मृति या पुराणोंकी रचना वेद अनुसार हुई बतलाते हैं । वेदके मंत्रभागसे उपनिषदें (ज्ञानकाण्ड ) और ब्राह्मणभागसे कर्मकाण्ड प्रकट हुये माने जाते हैं किन्तु " अणोरणीयान् महतो महीयान " के समान उक्त शास्त्रोंमें हिंसा, अहिंसा, मांसभक्षण मांसनिषेध, यज्ञ करना, ब्रह्मकी उपासना करना, आदि दृष्ट इष्ट प्रमाणों द्वारा विरुद्ध होरहे विषयोंका निरूपण पाया जाता है तिस कारण उन एकान्तवादी पण्डित करके उस ईश्वर के सर्वज्ञपनका प्रयोग कराने वाले जो सम्पूर्ण अनुमान कहे जारहे हैं वे सम्पूर्ण अनुमान ज्ञान हम अनेकान्तवादी विद्वानों के निर्दोष प्रमाणों करके बाधित कर दिये जाते हैं । ऐसी दशामें ईश्वरको जान बूझकर समस्त कारकोंका प्रधानरूपमें प्रयोक्तापन नहीं सिद्ध होसकता है। कारकोंका परिज्ञायक जीव ही कर्ता होय या ज्ञापक जीव ही कर्ता होवे यह दोनों एकान्त मत भूलोंसे भरे हुये हैं । वास्तविक बात तो यह है कि स्याद्वादियोंके यहां ही अर्हत् परमेष्ठीको सर्वज्ञपना बन सकता है क्योंकि उनके वचन युक्ति और शास्त्र प्रमाणोंसे अविरुद्ध हैं इस सिद्धान्तका हम अन्य प्रन्थोंमें निवेदन कर चुके हैं | विद्यानन्द महोदय ग्रन्थमें निवेदन किया गया होगा जो कि मुझ भाषा ठीका कारके दृष्टिगोचर नहीं हुआ है " स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते " इस देवागम ( आप्तमीमांसा ) की कारिकाका व्याख्यान करते समय अष्टसहस्रीमें भी श्री विद्यानन्द स्वामीने उक्त सिद्धान्तको पुष्ट किया है तिस कारणसे सम्पूर्ण कार्योंकी उत्पत्तिमें तत्पर होकर लग रहे कारकोंका कोई एक चरम प्रयोक्ता प्रधानपने करके भी सिद्ध नहीं