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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः 1 अनुपायसिद्धत्वात् " " ईश्वरः सर्वज्ञः सदा कर्ममलैरस्पृष्टत्वात् मुक्त आत्माको व्यतिरेक दृष्टान्त बनाया जा सकता है । प्रन्थकार कहते हैं कि यह नहीं कहना क्योंकि वैशेषिकों के उन हेतुओं के साध्य विषयकी इस वक्ष्यमाण अनुमान करके बाधा उपस्थित हो जाती है । अतः वे हेतु ईश्वरमें सर्वज्ञत्वकी अनुमिति करानेवाले नहीं हैं । उसको यों स्पष्ट रूपसे समझियेगा कि ईश्वर ( पक्ष ) सम्पूर्ण अर्थोका ज्ञाता नहीं है । ( साध्य ) दृष्ट प्रमाण यानी प्रत्यक्षप्रमाण और इष्ट यानी अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध हो रहे पदार्थों का कथन करनेवाला होने से ( हेतु ) जैसे कि बुद्ध, कपिल, अल्लाह आदिक आत्मायें सर्वज्ञ नहीं हैं । ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस अनुमान करके ईश्वर के सर्वज्ञत्व का प्रतिपादक हेतु बाधित हेत्वाभास हो जाता है । भावार्थ – बौद्ध विद्वान् अहिंसाका प्रतिपादन करते ये भी कचित् मांस भक्षणको परिहार्य नहीं समझते हैं। कुरानमें कई स्थलोंपर दयाका विधान पाया जाता है फिर भी मियां लोग इष्ट देवताके नामपर जीवित पशुको संकल्प कर मारते हुए स्वच्छंदतया मांसभक्षण करते हैं । शक्तिदेवताकी उपासना करनेवाले शाक्तजन स्वच्छंदरूपसे देवता के नैवेद्य मद्य, मांसका सेवन करते हैं। वदेमें " मा हिंस्याः सर्वाभूतानि " ऐसी प्रतिज्ञा की गई है। यजुर्वेद के छत्तीसवें अध्यायका अठारहवां मंत्र है कि दृतेदृ "हमा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे " इस मंत्रद्वारा सम्पूर्ण जीवों को परस्परमें अहिंसाभाव, मित्रभाव, अद्रोहपरिणाम और प्रेमव्यवहार रखना पुष्ट किया गया है । सम्पूर्ण जीव मुझे मित्र के समान देखें और मैं सत्रको मित्रके समान देखूं । मित्र अपने दूसरे परममित्रको कथमपि नहीं मारता है यह भले प्रकार समझा दिया है । किन्तु पन्द्रहवें अध्यायका पन्द्रहवां मंत्र है कि " अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस्तस्य रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ । पुज्जिकस्थला च ऋतुस्थला चाप्सरसौ दक्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नोऽत्रन्तु ते नो मृडयन्तु तेयं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तेमेषां जम्मे दध्मः इस मंत्रद्वारा हिंसाभाव तथा अप्रीतिभाव प्रकट किया है। इसी प्रकार सोलहवें, सत्रहवें, अठारहवें, आदि मंत्रों में भी हिंसाभाव तथा अप्रीतिभावकी पुष्टि की है इक्कीसवें अध्यायके साठवें मंत्रमें हिंसाको ध्वनित किया है वह मंत्र इस प्रकार है कि " सूमस्था अद्य देवो वनस्पतिरभंवदश्विभ्यां द्वयेन सरस्वत्यै, मेषेणेन्द्राय, ऋषभेणाक्षस्तान्मेदस्तः प्रति पवतामृभीषतावी वृधन्त पुरोडाशैरपुरश्विना सरस्वतीन्द्रः सुत्रामा सुरासोमान् " पच्चीसवें अध्याय के द्वितीय मंत्रका ऐसा ही हिंसापोषक अभिप्राय है " वातं प्राणेनापानेन नासिके उपयाममधरेणौष्ठेन सदुत्तरेण प्रकाशनान्तरमनूकाशेन बाह्यं निवेष्यं मूर्ध्वास्तनयित्नुं निर्बाधेन शनिं मस्तिष्केण विद्युतं " श्रोत्र श्रोत्राभ्यां कर्णो तेदनीमधरकण्ठेनापः शुष्ककण्ठेन चित्तं मन्याभिः रदिति शीष्णी निर्ऋतिं निर्जल्पेन शीर्णा सक्रोशैः प्राणान् रेष्माण ' स्तुयेन " इसके आगे भा कई मंत्रों में यज्ञसम्बन्धी हिंसाभावको वैध बताया गया है । अथर्ववेद में भी हिंसाकी भरमार है । I 1 ,, J कनीनकाभ्यां कर्णाभ्या "" ४६७
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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