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________________ ४६६ तत्वार्थ लोकवार्तिके सहित तो नहीं है क्योंकि उस व्यापक ईश्वरके शरीरोंका प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं है I " न तस्य मूर्तिः " ऐसा भी कचित् लिखा है अवतारोंपर अखण्ड श्रद्धा करानेवाले पुराणवाक्यों में अबाधित प्रामाण्य नहीं है | यहांतक कोई वृद्ध वैशेषिक कह रहे हैं ग्रन्थकार कहते हैं कि उनका 1 वह मन्तव्य भी सत्यार्थ नहीं है क्योंकि पहिले सर्वज्ञपन हेतुका रुद्रों करके व्यभिचार हो जायगा । " भीमावलि जिदस रुद्द विसालणयण सुप्पदिट्ठ चला, तो पुंडरीय अजिदंधर जिदणाभीय पीड सच्चइजो " ये ग्यारह रुद्र जैनोंके यहां माने गये हैं तुम पौराणिकों के यहां भी " अनैकपाद हिर्बुघ्नो विरूपाक्षः, सुरेश्वरः, जयन्तो बहुरूपश्च त्र्यम्बकोऽथापराजितः वैवस्वतश्च सावित्री हरो रुद्राः I करोगे तो तुम्हारे ऊपर अपसि - ग्यारह रुद्र माने गये हैं कतिपय रुद्र माने गये होंय उनका नियमसे सर्वज्ञपना भी इष्ट किया गया है । किन्तु योगी अथवा शक्ति नामक अन्य देवता करके अधिष्ठितपना स्वीकार किया है उन रुद्रोंका अधिष्ठापक एक अनादि कालीन महेश्वरको तुमने आदिमें ही माना है । यों स्वयं स्वीकार कर लेने से हेतु सर्वज्ञत्व रहनेपर और साध्य अन्यानाधिष्ठितत्व के नहीं ठहरनेसे व्यभिचार दोष आया । यदि रुद्रों के भी अन्य अधिष्ठापकों की स्वीकृति के उस सिद्धान्तको नहीं अंगीकार द्धान्त यानी अपने सिद्धान्त से स्खलित हो जाना दोषके लग जानेका प्रसंग हो जायगा तथा तुम्हारा दूसरा हेतु अनादि कालीन शुद्धिका वैभत्र भी आकाश करके अनैकान्तिक हेत्वाभास है । अनादिकालसे शुद्ध हो रहा वह आकाश जगत् की उत्पत्ति में अधिकरण कारक हो रहा है। साथ महेश्वरसे अधिष्ठितपना भी स्वीकार किया गया है । अतः हेतुके रह जानेपर और शुद्ध आकाशमें अन्याधिष्ठितत्व साध्यके नहीं ठहरनेपर व्यभिचार दोष जम बैठा । किं च, यदि प्राधान्येन समस्तकारक प्रयोक्तृत्वादीश्वरस्य सर्वज्ञत्वं साध्यते सर्वज्ञत्वाच प्रयोक्त्रन्तरनिरपेक्षं समस्तकारकप्रयोक्तृत्वं प्रधानभावेन तदा परस्पराश्रयो दोषः कुतो निवायेत १ साधनांतरात्तस्य सर्वज्ञत्वसिद्धिरिति चेन्न, तस्यानुमानेन बाधितविषयत्वेनागमकत्वात् । तथाहि–नेश्वरोऽशेषार्थवेदी दृष्टेष्टविरुद्धाभिधायित्वात् बुद्धादिवदित्यनुमानेन तत्सर्वज्ञत्वाववोधकमखिलमनुमानमभिधीयमानमेकांतवादिभिरभिहन्यते, स्याद्वादिन एव सर्वज्ञत्वोपपत्तेः युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वादित्यन्यत्र निवेदितं । ततो नाशेषकार्याणामुत्पत्तौ कारकाणामेकः प्रयोक्ता प्राधान्येनापि सिध्यतीति परेषां नेष्टसिद्धिः । 29 1. दूसरी बात यह भी है कि तुम वैशेषिक यदि प्रधानतासे सम्पूर्ण कारकोंका प्रयोक्ता होने से ईश्वरको सर्वज्ञपना साधते हो और सर्वज्ञ होनेसे ईश्वरको अन्य उपरिम प्रयोक्ताओंकी नहीं अपेक्षा रख कर प्रधानता करके समस्त कारकों के प्रयोक्तापनको साधते हो तब तो यह परस्पराश्रय दोष किससे हटाया जा सकता है ? अर्थात् — तुम्हारे ऊपर अन्योन्याश्रय दोष अटल होकर लग बैठा । यदि तु वैशेषिक यों कहो कि हम अन्य हेतुओंसे उस ईश्वर के सर्वज्ञपनकी सिद्धि करलेंगे । " ईश्वरः सर्वज्ञः 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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