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________________ तत्त्वार्थीचन्तामणिः - स्यान्मतं, नेश्वरस्यान्योऽधिष्ठाता प्रभुः सर्वज्ञत्वादनादिशुद्धिवैभवमाक्त्वाच्च । यस्य त्वन्योऽधिष्ठाता प्रभुः स न सर्वज्ञोऽनादिशुद्धिवैभवभाग्वा यथा विष्टिकर्मकरादिः न च तथेश्वरस्तस्मान्न तस्यान्योऽधिष्ठाता प्रभुरिति । नात्र धर्मिणोऽसिद्धिरखिलजगत्करणादीनां प्रयोक्तुस्तस्यानुमानसिद्धत्वात् , नापि हेतुरसिद्धस्तस्य सर्वज्ञत्वमंतरेण समस्तकारकप्रयोक्तृत्वस्यानुमानसिद्धस्यानुपपत्तेरनादिशुद्धिवैभवाभावे चाऽशरीरस्य सर्वज्ञत्वायोगात् । न च सशरीरोऽसौ तच्छरीरप्रतिपादकप्रमाणाभावात् इति । तदप्यसत् सर्वज्ञत्वस्य हेतो रुदैर्व्यभिचारात् । तेषां हि सर्वज्ञत्वमिष्यते योगिनान्येन वाधिष्ठितत्वं महेश्वरस्यानादेरधिष्ठापकस्य तेषामादिमतं स्वयमभ्युपगमात् , तदनभ्युपगमे अपसिद्धांतप्रसंगात् । तथानादिशुद्धिवैभवमप्याकाशेनानैकांतिकं, तस्य जगदुत्पत्तो वाधिकरणस्य महेश्वराधिष्ठितत्वोपगमात् । यदि तुम वैशेषिकोंका यह भी मन्तव्य होय कि ईश्वरका पुनः कोई अन्य अधिष्ठाता प्रभु नहीं है ( प्रतिज्ञा ) सर्वज्ञ होनेसे ( प्रथम हेतु ) अनादि कालीन शुद्धियोंके वैभवका धारण करनेवाला होनेसे (द्वितीय हेतु) देखो जिस अधिष्ठित व्यक्तिका अधिष्ठाता अन्य प्रभु हुआ करता है वह पदार्थ सर्वज्ञ नहीं है और अनादि कालीन शुद्धिके वैभवको धारनेवाला भी नहीं है जैसे कि पीनस या डोली, पालकांक ढोनेकी क्रियाको करने वाले धीमर या कारागृह (जेलखाना हवालात ) आदिमें बलात्कारसे ठेल देनेकी क्रियाको करनेवाले चपरासी आदि पुरुष हैं । अर्थात्-पीनसको ढोने वाले धीवर भीतर बैठे हुये वैद्य, प्रमु, ( मालिक ) महारानी आदि अन्य अधिष्ठाताओं के अधीन होकर चल रहे हैं । न्यायकर्ता अधिकारी ( अफसर ) की आज्ञा अनुसार सिपाई उन अपराधियोंको कारागृहमें खींच लेजाता है ये सेवक जन बिचारे सर्वज्ञ अथवा अनादि शुद्ध तो नहीं हैं । " साध्याभावे साधनाभावः " ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) और उस प्रकारका असर्वज्ञ या सादि शुद्ध अथवा अनाद्यशुद्ध हमारा ईश्वर नहीं है ( उपनय ) तिस कारणसे उस ईश्वरका कोई अन्य प्रभु अधिष्ठाता नहीं है । ( निगमन ) । इस अनुमानमें कहे गये ईश्वर नामक धर्मीकी असिद्धि नहीं है जिससे कि मेरा हेतु आश्रयासिद्ध हो जाता क्योंकि जगत्के सम्पूर्ण करण, अधिकरण, सहकारीकारण, क्रिया आदिकोंका प्रयोग करनेवाले उस ईश्वरकी अनुमानप्रमाण द्वारा सिद्धि हो चुकी है ऐसे प्रसिद्ध ईश्वरमें अन्य अधिष्ठाताकी अधीनताका अभाव साधा जा रहा है तथा इस अनुमानमें कहा गया सर्वज्ञ होते हुये अनादि सिद्ध होना एक हेतु अथवा सर्वज्ञत्व और अनादिशुद्धत्व ये दोनों हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास भी नहीं हैं क्योंकि अनुमानसे सिद्ध हो रहे उस ईश्वरको सर्वशत्वके विना समस्त कारकोंका प्रयोक्तापन नहीं बन पाता है और अनादिकालसे शुद्धिका वैभव नहीं माननेपर उस अशरीर, ईश्वरके सर्वज्ञपना नहीं आ सकता है । जैसे कि सादि शुद्ध मुक्त आत्माके अशरीर होनेपर भी सर्वज्ञपनका योग नहीं है । कतिपय पौराणिकोंके विचार अनुसार मान लिया गया वह ईश्वर शरीर59
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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