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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके होना चाहिये । तिस कारण उन जगत् के निश्शेष कारणों का प्रधानभूत प्रयोक्ता एक ही ईश्वर है यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यह नहीं कहना क्योंकि प्रधान होचुके भी समान कुलवाले, समान धनवाले, समान पुरुषार्थवाले, समान त्यागवाले, समान अभिमानवाले, अनेक प्रयोक्ताओंका कहीं नगर आदिमें अथवा करण आदिमें प्रयोजकपनसे दीखना - होरहा है । अर्थात् – एक नगर कई स्वतंत्र जमीदार या उद्भट पण्डितं अन्यानधीन होकर निवास करते हैं। समान कुलवाले कई कुलीन पुरुष स्वतंत्रतया बस रहे हैं कई सेठ, अनेक मल्ल, बहुतसे दानवीर, नाना अभिमानी स्वतंत्र होकर सुखपूर्वक निवास करते हैं । करण, अधिकरण आदिकोंमें अनेक स्थलोंपर स्वतंत्रता देखी जाती है मुनयो ध्यानं विदधति, भज्यते वृक्षः शाखाभारेण, अत्रे विद्योतते विद्युत्, परोपकाराय सतां विभूतिः, वृक्षात् पर्णं पतति, सूर्यस्यालोकः " इन कार्यों में किसी अधिष्ठाता की आवश्यकता नहीं है । वनमें अनेक पक्षी या पपूड स्वापत्त निवास करते हैं । समुद्रमें अनेक जलचर जीव या प्रवाल, मुक्ता आदि स्वतंत्र उपज रहे हैं । स्वाध्यायशाला में अनेक सज्जन मनमाने ग्रन्थों का स्वाध्याय कर रहे हैं। 1 हाटमें अनेक क्रेता विक्रेता अपने प्रयोजनको साध रहे हैं। अपनी उदराग्निसे सभी प्राणी अपने अपने भोको पचा रहे हैं । धार्मिक गृहस्थ अपने कर्तव्योंमें प्रवर्त रहे हैं । मुनिजन दिनरात स्वतंत्र तया आत्महित में लग रहे हैं उपाध्यायमहाराज पढानेमें लवलीन हैं। अपने अपने कर्तव्य अनुसार सभी जीव पुण्य या पापका उपार्जन कर रहे हैं। अतः सबके अधिष्ठायक एक प्रयोक्ता की सिद्धि नहीं हो पाती है । 66 तेषामपि राजाचार्यादिर्वा प्रयोक्तक एवेति चेत्, तस्यापि राज्ञोन्यो महाराजः प्रधानः प्रयोक्ता तस्याप्यपरः ततो महानिति क्व नाम प्रधानप्रयोक्तृत्वं व्यवतिष्ठेत । महेश्वर एवेति चेन्न, तस्यापि प्रधानापराधिष्ठापकपरिकल्पनायामनवस्थानस्य दुर्निवारत्वात् । सुदुरमपि गत्वा ब्यवस्थितिनिमित्ताभावाच्च । यदि वैशेषिक यों कहें कि उन समान कुलवाले, समान धनवाले आदि या कुम्हार, लुहार, आदि नाना प्रयोक्ताओं का भी अन्तमें जाकर प्रयोक्ता हो रहा राजा अथवा गृहस्थाचार्य, जमीदार, प्रधान प्रबन्धकर्त्ता, स्थपति, आदि एक ही प्रयोक्ता है । यों कहनेपर तो प्रन्थकार कहते हैं कि उस 1 राजाका भी प्रधान प्रयोक्ता अन्य महाराजा होगा और उसका भी उपरिवर्ती प्रयोक्ता कोई तीसरा उससे बढा मण्डलेश्वर होगा और उससे भी बडा अधिकारी महामण्डलेश्वर उसका प्रयोक्ता होगा इस प्रकार चक्रवर्ती आदि के प्रधान प्रयोक्तापनको भला कहां आगे चलते चलते विश्राम लेनेकी व्यवस्था की जावेगी ? अनवस्था दोष होगा । यदि तुम वैशेषिक यों कहो कि परिशेषमें जाकर सबका अंतिम प्रयोक्ता हमारा अभीष्ट महेश्वर ही है । आचार्य कहते हैं कि उस महेश्वर के भी प्रधान हो रहे उपवित उत्तरोत्तर अधिष्ठायक महामहेश्वर आदिकी लम्बी चौडी कल्पना करते सन्ते अनवस्था दोषका निवारण कठिनतासे भी नहीं हो सकता है और बहुत दूर भी जाकर तुम वैशेषिकों के पास व्यवस्था कर देनेका कोई परिनिष्ठित निमित्त नहीं है। ४६४ V
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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