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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः हमारे यहां ईश्वर इष्ट किया गया है। यों वैशेषिकोंका मत होनेपर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिये क्योंकि सम्पूर्ण कारकोंका प्रयोक्ता एक ही होय इस निर्णयकी सिद्धि नहीं हो सकती है। कहीं कहीं अनेक कारणोंका नाना प्रयोक्ताओं द्वारा प्रयुक्त किया जाना निःसंशय देखा जा रहा है । एक विवाहरूप कार्यमें अनेक नियोगी ( नेगी ) स्वतंत्र न्यारे न्यारे कार्योंके प्रयोजक हैं । जगत्में सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, पृथ्वी, ये सब अपने अपने उचित कार्योंके विधाता हैं इनको किसी प्रयोक्ताकी आवश्यकता नहीं है । बारह थम्भोंपर लदी हुई शिखरको सभी थम्भे स्वतंत्रतासे धार रहे हैं इस क्रियाका कोई चेतन अधिष्ठाता प्रयोजक नहीं है । वनमें पडे हुये अनेक वीज अपने अपने न्यारे न्यारे अंकुरोंको उपजा रहे हैं । क्षुधाको अन्न दूर कर देता है । प्यासको जल मेट देता है अग्नि काष्टको जला देती है वायु पत्तोंको हिला रही है । आकाशमें शब्द गूंज रहा है इत्यादि अनेक कार्योंका कोई एक मुखिया प्रयोक्ता नहीं देखा जाता है। न हि करणादित्वस्य हेतोरेककर्तृत्वे सामर्थ्य येन ततो निःशेषकारकाणामेक एव प्रयोक्ता खेष्टो महेश्वरः सिध्द्येत् । कचित्मासादादौ करणादीनां नानाप्रयोक्तृकत्वस्याप्यसंदेहमुपलब्धेः । ननु प्राधान्येन चात्रापि तेषामेक एव प्रयोक्ता सूत्रकारो महत्तरो राजा वा, गुणभावेन तु नानाप्रयोक्तृकत्वं जगत्करणादीनामपि न निवार्यत एव, ततः प्रधानभूतो अमीषामेक एव प्रयोक्तेश्वर इति चेत् न, प्रधानभूतानामपि समानकुलवित्तपौरुषत्यागाभिमानानां कचिनगरादौ करणादिषु नाना प्रयोक्तृणामुपलंभात् । __तुम वैशेषिकोंके कहे गये करणादित्व हेतुकी एक ही कतीसे अधिष्ठितपनको साधनेमें सामर्थ्य नहीं है जिससे कि उस हेतुसे सम्पूर्ण कारकोंका एक प्रयोक्ता तुम्हारे यहां निज अभीष्ट हो रहा महेश्वर सिद्ध हो जाता । अर्थात्-तुम्हारा असमर्थ हेतु तुम्हारे अभीष्ट साध्यका साधक नहीं है । क्योंकि प्रासाद, कोठी, पंचायत, मार्गगमन, पंक्तिभोजन, आदि कार्योंमें करण, अधिकरण आदि हो रहे पदार्थोका अनेक प्रयोक्ताओं द्वारा प्रयुक्त होना भी संदेहरहित देखा जाता है । हवेलीके न्यारे न्यारे भागोकों कतिपय स्थपति स्वाधीन होकर कर रहे हैं । कई महलोंको तो अनेक पीडियोंमें कतिपय धनपतियोंने बनवाया है । महलके कामोंसे होनेवाले काष्ठोंको बढई पत्थरका है लोहेसे होने वाले कार्योको लुहार बनाना है । पत्थरका काम करने वाले लुहार या बढईपर प्रभुत्व नहीं जमा पाते हैं, अजमेरमें एक महल सेठोंकी चार पीढीसे बन रहा है, ऐसी दशामें उसका अधिष्ठायक एक आत्मा कैसे कहा जासकता है ? यदि वैशेषिक पुनः अनुज्ञा करें कि यहां कोठी आदिमें भी प्रधानपनेसे उन कार्योंका प्रयोक्ता बडा महान् प्रतिष्ठित पुरुष अथवा राजा एक ही प्रयोक्ता हैं हां गौण रूपसे तो वे कार्य अनेक प्रयोक्ताओं करके प्रयुक्त किये गये हैं। इसी प्रकार जगत्के करण, अधिकरण, आदिकोंके भी गौणरूपसे भले ही अनेक प्रयोक्ता होजाय हम उनको नहीं रोकते हैं । हां प्रधान प्रयोक्ता एक ही सबका
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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