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________________ १६२ तत्वार्यश्लोकवार्तिके व्यक्ति प्रसिद्ध नहीं है। अतः न्याप्ति या दृष्टान्तकी सामर्थ्यसे उस तुम्हारे मनमानी कर्तासे अधिष्ठितपना करण आदि पक्षमें नहीं सध पाता है। ___ ननु च यथात्मनि रूपोपलब्ध्यादिक्रियामुपलभ्य तस्यैव तत्र व्याप्रियमाणस्य स्वतंत्रस्य कर्तुः करणं चक्षुरादि सिद्धयति, तथा जगति करणादिसाधनमुपलभ्य तस्यैव करणादीनां कर्जधिष्ठितत्वं सिद्धयतीति सकरजगत्करणाद्यधिष्ठायीश्वर इति संज्ञायमानः कथमिष्टो न सिध्येत् तावन्मात्रस्य मयापीष्टत्वादिति पराकूतमन्द्य निराकरोति । ___वैशेषिक अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये पुनः अनुमान करते हैं कि जिस प्रकार आत्मामें होरही रूपकी उपलब्धि, रसकी प्रतीति, आदि क्रियाओंको देखकर उन क्रियाओंमें व्यापार कर रहे स्वतंत्र कर्ता उस आत्माके ही सहकारी करण चक्षुः आदिक साध लिये जाते हैं । उसी प्रकार जगतमें करण, अधिकरण, आदि साधनों को देखकर उस जगत्के ही करण आदिकोंका कर्तासे अधिष्ठितपना सध जाता है । अर्थात्-आत्मा क के अनुरूप जैसे चक्षु आदिक इन्द्रियां सिद्ध होती हैं । उसी प्रकार जगत्के निर्मापक करणों के अनुरूप ही कोई कर्ता उनका अधिष्ठायक हो सकता है। इस प्रकार जगत्के सम्पूर्ण करण, अधिकरण, आदिका अधिष्ठाता जो कि ईश्वर इस नाम करके कहा जा रहा है वह इष्ट भला क्यों नहीं सिद्ध होगा ? क्योंकि हमको भी केवल उतना ही ईश्वरका अधिष्ठातापन इष्ट है । जैसे कि तुमको रूपकी उपलब्धिमें आत्माका प्रेरक सहकारी करण इष्ट था । जिस प्रकार आप जैन चक्षुः आदि परोक्षकरणोंकी अपने अनुमानसे सिद्धि करते हुये उन करणोंकी चक्षुः, रसना, आदि संज्ञायें धर लेते हैं उसी प्रकार हम वैशेषिक भी जगत्के अधिष्ठाता कर्ताको केवल साध रहे उसका नाम निर्देश ईश्वर कर लेते हैं । यहांतक वैशेषिक कह रहे हैं अब यों दूसरे वैशेषिकोंके चेष्टितका अनुवाद कर श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिकोंकरके उस आकूतका निराकरण करते हैं। सिद्धे कर्तरि निःशेषकारकाणां प्रयोक्तरि । हेतुः सामर्थ्यतः सिद्धः स चेदिष्टो महेश्वरः ॥ ६३॥ नैवं प्रयोक्तुरेकस्य कारकाणामसिद्धितः । नानाप्रयोक्तृकत्वस्य कचिदृष्टेरसंशयं ॥ ६४ ॥ सम्पूर्ण कारकोंके यथा विनियोग प्रयोग करनेवाले कर्ताके सिद्ध होनेपर सामर्थ्यसे ही कोई न कोई हेतु यानी निमित्त कारण कर्ता व्यापक सर्वज्ञ सिद्ध हो ही जाता है । सम्पूर्ण जगत्के कारकोंका ठीक ठीक यथा स्थान यथा समय प्रबन्ध करनेवाला विशिष्ट आत्मा ही होना चाहिये और वह
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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