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तत्वार्थचिन्तामणिः
शरीर, भुवन, आदिके विवादमें प्राप्त हो रहे स्वरूप करण इन्द्रियां, अदृष्ट, परमाणु, आर्दिक पदार्थ ( पक्ष ) किसी एक कर्त्ता करके अधिष्ठित हो रहे सन्ते प्रवर्तते हैं ( साध्य दल ) करण आदिपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि वसूला, हथोडा, मोंगरा, लेखनी, सूची, छेनी, आदिक करण किसी न किसी बढई, सुनार, धोबी, लेखक, सूचीकार, मिस्त्री, आदि कर्त्ताओंसे अधिष्ठित होकर स्वयोग्य क्रियाओंमें वर्त रहे हैं। आचार्य कहते हैं कि इस अनुमान द्वारा यदि सामान्यरूपसे उनके अधिष्ठाता चाहे किसी भी कर्त्तीको साधा जायगा तब तो तुम वैशेषिकोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष आता है क्योंकि जिस सिद्धान्तको हम स्वीकार कर रहे हैं उसकी पुनः सिद्धि कराना व्यर्थ है । सत्रहवीं वार्त्तिकमें इम पाईले भी इस बातको कह चुके हैं। हां, यदि विशेषरूपसे नित्य, व्यापक, अशरीर, ईश्वर कर्त्ता करके अधिष्ठितपना यदि साध्य किया जायगा तब तो उदाहरण साध्यसे शून्य हो जायगा वसूला आदि कारणोंके अधिष्ठाता बन रहे बढई लुहार, आदिक कर्त्ता तो अशरीर या सर्वज्ञ नहीं हैं । अर्थात् – तुम्हारा उदाहरण साध्यविकल दोषसे ग्रस्त हुआ ।
विवादापन्नस्वभावानि करणाधिकरणादीनि केनचित् कर्माधिष्ठितानि वर्तते करणाधिकरणत्वाद्वास्यादिवत् । योऽसौ कर्ता स महेश्वर इति कश्चित् तस्य कर्तृसामान्ये साध्ये सिद्धसाधनं । कर्तृविशेषे तु नित्यसर्वगतामूर्तसर्वज्ञादिगुणोपेते साध्ये साध्यविकलमुदाहरणं, वास्यादेरसर्वगतादिरूपतक्षादिकर्त्रधिष्ठितस्य प्रवृत्तिदर्शनात् ।
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वैशेषिकों का अनुमान यों है कि विवाद में प्राप्त हो रहे स्वभाववाले करण, अधिकरण, सम्प्रदान आदि कारक ( पक्ष ) किसी न किसी चेतन कर्त्तासे अधिष्ठित हो रहे सन्ते क्रिया करनेमें प्रवर्त रहे हैं ( साध्य ) क्योंकि वे करण या अधिकरण आदि हैं ( हेतु ) आदि के समान अन्वयदृष्टान्त ) । वह जो इनका अधिष्ठायक कर्त्ता है वह हमारे माना गया है यहांतक कोई कर्तृवादी कह रहा है । प्रन्थकार कहते हैं कि उस सामान्य रूपके कर्त्ताको साध्य करनेपर सिद्धसाधन दोष आता है। हां, नित्य, व्यापक, अमूर्त, सर्वज्ञ, निष्कर्मा, सदामुक्त आदि गुणोंसे सहित हो रहे विशेष कर्त्ताको साध्य करनेपर तो तुम्हारा दिया गया उदाहरण साध्यसे रीता हो जायगा क्योंकि वसूला आदिकी असर्वगत, अल्पज्ञ, सकर्मा आदि स्वरूप बढई आदि कर्त्ताओंसे अधिष्ठित हो रहों की प्रवृत्तियां देखीं जा रहीं हैं । अतः तुम्हारा अनुमान दूषित है । तत्सामान्यविशेषस्य साध्यत्वाचेददषणं ।
सोऽपि सिद्धाखिलव्यक्तिव्यापी कश्चित्प्रसिद्ध्यति ॥ ६१ ॥ देशकालविशेषावच्छिन्नाग्निव्यक्तिनिष्ठितं ।
साध्यते ह्यभिसामान्यं धूमान्नासिद्धभेदगं ॥ ६२ ॥
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वसूला, आरा, यहां महेश्वर कर्तृवादीके यहां