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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
गुण आत्माका है और शब्दका आकाशमें समवाय है इस कारण आकाश गुण शब्द है तथा घट, पट, आदिमें रूप, रस, आदिका समवाय होनेसे वे उनके गुण नियत हो रहे हैं । जब कि जगत्में अपने अपने शरीर पुत्र, कलत्र, धन, वस्त्र, पशु, आदि कुछ संयुक्त हो रहे किन्तु बहुभाग नहीं संयुक्त हो रहे भिन्न पदार्थोकी भी नियत व्यवस्था हो रही है । कोई भी -दूसरोंकी सम्पत्तिपर अधिकार नहीं जमा सकता है तो फिर अयुतसिद्ध पदार्थोके समवाय सम्बन्धसे नियत हो रहे प्रकृत गुणोंको उन नियत द्रव्योंके गुण हो जानेका कौन विरोध कर सकता है ? । यदि समवेत गुण ही दूसरे द्रव्यों करके छीनलिये जाय तो ऐसी पोलकी दशामें संयुक्त या असंयुक्त वस्त्र, भूषण, गृह, उपवन, गोधन, आदिको चाहे कोई भी दिन दहाडे लूट सकता है । राजा या पंचायतका प्रबन्ध करना धूलमें मिल जायगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि समवायी पदार्थोंमें तदात्मकपनको प्राप्त हो रहे तादात्म्य सम्बन्धको ही समवाय सम्बन्ध बहुत अच्छा साधा जा चुका है । जब समवायका अर्थ कथंचित् तादाम्य है तो कार्य और कारणका एकान्त भेद प्रसिद्ध नहीं हो सका । किन्तु कार्य और कारणमें कथंचित् अभेद प्रसिद्ध हुआ । जब कि आत्मा, परमाणुयें, आदिक कारण ईश्वरकृत नहीं है तो इनसे कथंचित् अभिन्न हो रहे ज्ञान, घट, शरीर, भुवन, आदि कार्य भी सर्वथा ईश्वरकृत नहीं है । हां, कथंचित् बुद्धिमान्से किये गये भले ही ये मान लिये जाय तिस कारणसे विवादमें प्राप्त हो रहे शरीर, इन्द्रियां, भुवन, द्वीप, पर्वत, आदि सम्पूर्ण कार्य पदार्थोका बुद्धिमान् कारणद्वारा सर्वथा जन्यपना साध्य करनेपर प्रयुक्त किया गया कथंचित् कार्यपना हेतु अपने इष्ट साध्यसे विपरीत बुद्धिमान् निमित्तद्वारा कथंचित् जन्यपनकी ही बढिया सिद्धि करा देगा इस प्रकार तुम वैशेषिकोंका कार्यत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास हो जायगा और इन शरीर, इन्द्रियों, भुवन आदिमें सर्वथा कार्यपना हेतु तो असिद्ध हेत्वाभास है इस प्रकार कथंचित् कार्यत्व और सर्वथा कार्यत्वके विकल्प अनुसार तुम्हारे ऊपर उठाये गये ये विरुद्ध और असिद्ध दोनों दूषण कठिनतासे भी परिहार करने योग्य नहीं हैं उन्हींको हमने बावनवीं और त्रेपनवीं वार्तिको दिखा दिया है।
___संप्रति साधनांतरमन्द्य दूषयन्नाह ।
अब इस समय ग्रन्थकार उन कर्तृवादी वैशेषिकोंके अन्य साधनोंका अनुवाद कर उनके सिद्धान्तोंमें दूषण दिखलाते हुये अग्रिम वार्तिकोंको कह रहे हैं।
विवादाध्यासितात्मानि करणादीनि केनचित् । काधिष्ठितवृत्तीनि करणादित्वतो यथा ॥ ५९॥ वास्यादीनि च तत्कर्तृसामान्ये सिद्धसाधनं । साध्ये कर्तृविशेषे तु साध्यशून्यं निदर्शनम् ॥ ६०॥