SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ४५३ नवीं कारिका अनुसार उस कार्यत्वको असिद्ध हेत्वाभासपना नहीं बननेवाला है । क्योंकि हम पक्ष हो रहे अनित्य पदार्थोंमें सर्वथा कार्यपना वर्त रहा मानते हैं। " यदप्याहुः " से यहांतक वैशेषिक अपने पक्षको दृढ करते हुये कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि यह वैशेषिकोंका सम्पूर्ण कथन पूर्वापर संगतिसे रहित होता हुआ असम्बद्ध है क्योंकि कार्य और कारणमें वैशेषिकोंके यहां अभीष्ट किये गये एकान्त रूपसे भेदकी प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं हो सकी है क्योंकि कार्य और कारणके कथंचित् एकपनकी सबको प्रमाणों द्वारा प्रतिपत्ति हो रही है। उन कार्य और कारणके एकान्तरूपसे भेदको साधनेवाले सम्पूर्ण ज्ञानोंके विषयमें अनेकान्तके ग्राहक प्रमाणों करके बाधा उपस्थित कर दी जाती है । अतः भेदको साधनेवाले हेतुको बाधित हेत्वाभासपना व्यवस्थित कर दिया जाता है । जब कि घट, ज्ञान, शब्द, आदिके कारण होरहे परमाणु , आत्मा, आकाश, आदि कारण किसी भी बुद्धिमान्से जन्य नहीं हैं तो उनसे अभिन्न होरहे कार्य भी सर्वथा बुद्धिमान्से जन्य ही होय यह एकान्त नहीं किया जासकता है । अतः कार्यत्व हेतु बाधितहेत्वाभास है । तुम वैशेषिकोंने अनित्य द्रव्य, गुण, कर्मोको पक्षकोटिमें धरा और नित्य द्रव्य, गुण, सामान्य, विशेष, समवाय, और कतिपय अभावोंको पक्ष नहीं बनाया भेदकी फुप्स फुसी भित्तिपर खडे होकर यह तुम्हारा परिश्रम करना पतनका हेतु समझा जायगा " तस्माद् द्यौरजायत " " आदाबपों सृजत " इत्यादि वेदानुसार वाक्यौ द्वारा कतिपय स्मृतिकार और पुराणकार विद्वानोंने आकाश, जल, आदिकी समूल सृष्टि स्वीकार की है । कोई पण्डित ईश्वरके शरीर मानते हैं अवतार लेना स्वीकार करते हैं । अन्य पण्डित ईश्वरको अशरीर अङ्गीकार करते हैं । ऐसी दशामें उक्त कथन पूर्वापरसंगतिसे शून्य होजाता है। शब्दको ( विशेषतया वैदिक शब्दोंको ) नित्य माननेवाले मीमांसकोंकी शब्दभावना, आत्मभावनाको स्वीकार कर लेते हो और कदाचित् वैशेषिक होकर शब्दको सर्वथा अनित्य मान बैठते हो संयोग या विभाग को अनित्य मानकर भी क्वचित् नित्य मान लिया गया है, परमाणुमें नहीं पाये जानेवाले गुरुत्वका बोझ बलात्कारसे परमाणुपर लादा गया है । नित्य द्रव्योंमें परस्पर भेद करानेके लिये अनन्त विशेष पदार्थोका मानना निरर्थक है । वैशेषिकोंकी अभीष्ट पदार्थ प्रतिपादक प्रणालीमें अनेक दोष आते हैं उपादान कारण और उपादेयका सर्वथा भेद माने रहना कोरा मिथ्याभिनिवेश है। ननु च कार्यकारणयोरेकस्य कथंचिनिश्चयात् कार्यद्रव्यस्य कारणद्रव्या दैकान्तो माभूत् गुणस्य चानित्यस्य कर्मणोपि च तत्कार्थत्वाविशेषात् सदृशपरिणामलक्षणस्य सामान्यस्य विसदृशपरिणामलक्षणस्य विशेषस्य चात्यापरविकल्पस्य समवायस्य चाविष्वग्भावलक्षणस्य द्रव्यकार्यत्वात् कथंचित्ततोऽनन्यत्वमस्तु नित्यात्तु गुणाद्गुणी भिन्न एव तयोः कार्यकारणभावाभावादिति मन्यमानं प्रत्याह । वैशोषक अपनी नीतिका प्रचार करने के लिये पुनरपि अवधारण करते हैं कि कार्य और कारणके कथांचत् एकपनका निश्चय हो जानेसे घट, पट, आदि कार्यद्रव्योंका मृत्तिका, तन्तु आदि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy