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________________ ४५२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके गया है । परमाणुओंका विभाग भले ही अनित्य होय किन्तु अमूर्त नित्य द्रव्योंका विभाग तो नित्य माना जायगा । एक बात यह विचारकी है कि, जब कि व्यापक नित्य द्रव्योंमें सर्वदा अछिद्र नित्य संयोग होरहा है तो फिर " संयोगनाशको गुणो विभागः ” ऐसे विभागगुणको वहां माननेमें जी हिचकिचाता है । जैन जन विभाग या पृथक्त्व गुणके प्रयोजनको अन्योन्याभावसे साध लेते हैं। किन्तु हम वैशेषिकोंके यहां अभाव पदार्थसे न्यारे पृथक्त्व और विभाग दो भावात्मक गुण माने गये हैं अतः नित्य द्रव्योंमें पाया जा रहा अन्योन्याभाव तो पक्षमें परिगणित नहीं है। क्योंकि इस अन्योन्याभावकी कारणोंसे उत्पत्ति नहीं होरही है । नित्य स्वरूप वह अन्योन्याभाव तो कर्तृजन्य या कत्रजन्यरूप करके विवादग्रसित नहीं है। सब कोई पण्डित नित्य, अन्योन्याभावको कर्चजन्य अभीष्ट कर रहे हैं। तथा क्रिया धर्मिणी विनश्वरी परिस्पन्दलक्षणोत्क्षेपणादिर्न पुनर्धात्वर्थलक्षणा भावनादिः काचिन्नित्या तस्या अपि विवादापन्नत्वाभावात् । तस्य च बुद्धिमान् हेतुरस्तीति यदा साध्यस्थितो भवेत् तदा न कार्यत्वं स्वेष्टविपरीतं साधयेत् स्वेष्टस्यैव सर्वथा बुद्धिमत्कारणकत्वस्य साधनात् । सर्वथा विवक्षितस्यापि तस्यासिद्धत्वं च नोपपत्तिमदिति तदेतत्सर्वमसंबद्धम् । कार्यकारणयोर्भेदैकान्तापसिद्धेः कथञ्चिदैक्यप्रतिपत्तः। सर्वस्य तद्भेदैकान्तसाधनस्यानेकान्तग्राहिणा प्रमाणेन बाधितविषयत्वात् कालात्ययापदिष्टत्वव्यवस्थितेः। ___ बैशेषिक ही कहे जारहे हैं कि तिस ही प्रकार हलन, चलन, भ्रमण, ऊर्ध्वगमन, आदि परिस्वरूप उत्क्षेपण आदि विनाशशील क्रियायें भी पक्ष हैं यानी पक्षकोटिमें धरी गयी हैं। द्रव्यको एक देशसे देशान्तरमें करादेनेवाली क्रियायें तो अनित्य ही हैं किन्तु फिर याज, पचि, आदि धातुओंके अर्थस्वरूप भावना, नियोग, आदि कोई कोई नित्य क्रियायें तो पक्ष नहीं की गयी हैं । क्योंकि मीमांसक मतानुसार इन भावना आदि धात्वर्थ क्रियाओंको भी यहां प्रकरणमें विवादापनपना नहीं है । सामान्य, विशेष, समवाय तो नित्य पदार्थ हैं । अभावोंमें प्रागभाव अनादि है । अतः वह भी कर्तृजन्यत्वेन विवादपतित नहीं है । हां, बस नामका अभाव अनित्य है । उसको पक्षमें डाल लो । तादात्म्यसम्बन्धाविच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽन्योन्याभावः और त्रैकालिकसंसर्गाविच्छिन्नप्रतियोगिताको अत्यन्ताभावः ये दो अभाव एक प्रकार नित्य ही हैं । इस प्रकार पक्षकोटिमें डाले गये अनित्य द्रव्य, गुण, क्रियायें, और ध्वंसका हेतु कोई बुद्धिमान् निमित्तकारण है । इस प्रकार जब साध्य कोटिमें व्यवस्थित किया जावेगा तब हमारा कार्यत्व हेतु हमारे अभीष्ट साध्य हो रहे ईश्वरजन्यत्वसे विपरीत साध्यको नहीं साध सकेगा । क्योंकि सबको इष्ट हो रहे सर्वथा बुद्धिमान् कारणसे जन्यत्वका ही साधन किया जा रहा है । अतः हमारा कार्यत्व हेतु विरुद्ध नहीं है । आप जैन त्रेपनवीं कारिकामें उठाये हुये दोषको लोटा लो । तथा यदि कार्यत्वका अर्थ सर्वथा कार्यत्व भी विवक्षा प्राप्त कर लिया जाय तो भी बाव.
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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