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तत्वार्थ लोकवार्तिके
कारणद्रव्योंसे एकान्तभेद नहीं होओ तथा अनित्यगुण और क्रियाओं का भी अपने समवायीकारण द्रव्य से एकान्त भेद नहीं होवे क्योंकि उन द्रव्योंका उपादेयरूपसे कार्यपना गुण कर्मोंमें विद्यमान है । द्रव्यकी उपादेयता और गुण क्रियाओंकी उपादेयतामें कोई अन्तर नहीं है एवं तुम जैनों के यहां माने गये सदृश परिणामस्वरूप सामान्य पदार्थका और विसदृशपरिणामस्वरूप विशेषका जो कि हम वैशोषकों के यहां अन्त्य विशेष और अपर विशेष दो प्रकारका माना गया है । अपने कारण द्रव्यके साथ भले ही सर्वथा भेद नहीं होओ एवं पृथग्भाव नहीं होकर तादात्म्य सम्बन्धस्वरूप हो रहे समवायका भी अपने कारणके साथ सर्वथा भेद नहीं सही क्योंकि उक्त अनित्य पदार्थोंको द्रव्यका कार्य होनेसे उस कारणसे कथंचित् अभिन्नपना बना रहो कोई क्षति नहीं है । किन्तु नित्य गुणसे तो गुणी द्रव्य भिन्न ही होगा । क्योंकि उन निंत्य गुण और नित्य गुणीमें कार्यकारणभाव नहीं है । अर्थात्-आप जैन कार्य द्रव्यों (पर्यायों ) अनित्यगुण अनित्य क्रियाओं को जैसा मानते हैं तदनुसार कार्य और कारणका कथंचित् अभेद अच्छा है " सदृशपरिणामस्तिर्य सामान्यं " " अर्थान्तरगतो विसदृश परिणामो व्यतिरेकविशेषः " ऐसे सामान्य विशेषों का भी अपने कारणों के साथ कथंचित् अभेद हमें अच्छा दीखता है । वैशेषिकोंने विशेष के दो भेद माने हैं एक अन्तमें ठहरनेवाला नित्यद्रव्यवृत्ति विशेष है दूसरा सत्ता या द्रव्यत्वके व्याप्य होरहीं पृथिवीत्व, घटत्व, आदि जातियों या विशेष द्रव्य, गुण, आदिको दूसरा अपर विशेष इष्ट किया है अस्तु – “ नयेोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा " यों अपृथग्भाव ( तादात्म्य ) स्वरूप समवाय सम्बन्ध भी कथंचित् अभिन्न बन जाओ हमारी कोई क्षति नहीं है । किन्तु नित्य गुण परममहापरिमाण आदि से आकाश आदि गुणवान् द्रव्योंको भिन्नही मानना आवश्यक है । उपादान कारण स्वयं उपादेयरूप परिणत होय तब तो अभेद मान लेना अच्छा जचता है किन्तु जहां परिणाम परिणामीभाव नहीं है गुणगुणीका तत्त्वान्तर रूपसे भेद अक्षुण्ण बना रहो। अतः आप हमारे सर्वथा भेदका सहारा पाकर बाधाओं को नहीं उठा सकते हैं इस प्रकार कोई वैशेषिक पण्डित मान रहे हैं उनके प्रति श्री आचार्य महाराज उत्तर वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं ।
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नैकांत भेदभृत्सिद्धो नित्यादपि गुणाद्गुणी । द्रवस्यानादिपर्यन्तपरिणामात् तथा स्थितेः ॥ ५८ ॥
नित्य होरहे भी गुणसे सर्वथा भेदको धार रहा गुणी द्रव्य सिद्ध नहीं है क्योंकि अनादि कालसे अनन्त कालपर्यन्त सहभावी परिणामोंसे द्रव्यकी तिस प्रकार व्यवस्था होरही है । अर्थातअखण्ड द्रव्य के नियत कार्यों द्वारा अनुमित किये गये अनन्त गुण अविष्वग्भावरूपसे द्रव्य में वर्त रहे हैं जबसे द्रव्य है तभी से वे गुण हैं द्रव्यके सहभावी परिणाम गुण माने गये हैं । अतः नित्य गुणोंके साथ नित्यं द्रव्यका अभिन्नपना सुलभ है प्रत्युत अनित्य गुण, क्रियाओं, सदृशपरिणाम,