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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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हेतुसे जन्यपनको साधेंगे । अतः स्वयं दुष्ट होरहे सर्वथा बुद्धिमान् कारण करके जन्यपनसे विपरीत होरहे कथंचित् बुद्धिमान् हेतु करके जन्यपनके साथ व्याप्ति रखने वाले कथंचित् कार्यत्व आदि हेतु तो विरुद्ध हैं " साध्यविपरीतव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः " जगत्का सभी प्रकार व्यापक, सर्वज्ञ, एक अशरीर, बुद्धिमान् कारणसे जन्यपना साध्य करनेपर पुनः कथंचित् अव्यापक, अल्पज्ञ, अनेक सशरीर, 'बुद्धिमान् कारणोंसे जगत्की उत्पत्तिको साध देनेवाले वे सभी हेतु विशेषविरुद्ध हेत्वाभास होजाते हैं, अपना विशेष विरुद्धपना पुकार रहे वे हेतु यों ही सहजमें झट पलायन ( भाग जाना ) नहीं कर जाते हैं । वहुत दिनसे बिछुर गये अपने मूल्यवान् पदार्थकी प्राप्ति होजानेपर पुनः वह पदार्थ यों ही झट शत्रुओंको नहीं सोंप दिया जाता है । कथंचित् लगा देनेसे उक्त सभी हेतु वैशेषिकोंके विरुद्ध होकर स्याद्वादियोंके पक्षसिद्धिकी पुकार मचाते रहते हैं । विशेष विरुद्ध हेतु अपने कर्तव्य कथंचित् बुद्धिमान्से जन्यपनको चराचर जगत्में साध रहे हैं । निकृष्ट कार्यको साध लेनेका प्रकरण आनेपर भले ही कोई भाग जाय अच्छाही है किन्तु प्रकृष्ट कार्योको साधने के लिये साधन अपना धन्य भाग समझते हैं वे अधिक देरतक ठहरना वांछते हुये बडी प्रसन्नतासे उन कार्योको साधते हैं। सबसे प्रथम मूलमें कहे गये निर्विशेषण कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, आदि हेतुओं करके वैशेषिकोंके यहां अपने इष्ट होरहे साध्यकी प्रसिद्धि नहीं होसकी है । हां कथंचित् कार्यत्वको सर्वत्र आदरके साथ स्थान मिल रहा है । किन्तु सर्वथा कार्यत्वको कहीं भी ठहरनेके लिये अवकाश प्राप्त नहीं होता है। अतः उन कथंचित् कार्यत्व, कथंचित् अचेतनोपादानत्व, आदि हेतुओंके अवकाशरहितपनका अभाव होजानेसे उन कथंचित् कार्यत्व आदि करके इस मूलमें उपात्त किये निर्विशेषण कार्यत्व या सर्वथा कार्यत्व आदि हेतुओंका व्याघात होजाना सिद्ध है । अर्थात्-सादर निमंत्रणपूर्वक सर्व स्थलोंपर अवकाश पारहे कथंचित् कार्यत्व हेतु करके सर्वत्रसे निरादर कर भगाये जारहे सर्वथा कार्यत्वहेतुका व्याघात कर दिया जाता है । यों वैशेषिकोंके सिद्धान्तका प्रत्याख्यान कर जैन सिद्धान्त अनुसार कथंचित् बुद्धिमान् निमित्तत्वकी सिद्धि होजाती है।
न चैवं धृमादेरग्न्याद्यनुमानं प्रत्याख्ययं कथंचिदग्निमत्त्वादेरेव कचिल्लौकिकैः साध्यत्वात् कथंचिदमवत्त्वादेरेव हेतुत्वेनोपगमाच्चासिद्धत्वविरुद्धत्वयोरयोगात् । तर्हि जगतां कथंचिदबुद्धिमत्कारणत्वस्य साध्यत्वात् कथंचित्कार्यत्वादेश्च हेतुत्वोपगमात्परस्यापि न दोषः इति चेन्न, स्याद्वादिनां सिद्धसाधनस्य तथा व्यवस्थापनात् ।
यदि वैशेषिक यों कहें कि इस प्रकार विशेष विरुद्धताका कुचक्र यदि भले हेतुओंपर चला जायगा तब तो धूम, कृतकत्व, आदि हेतुओंसे अग्नि, अनित्यत्व, आदिको समझा रहे प्रसिद्ध अनुमानोंका भी प्रत्याख्यान हो जाना चाहिये । धूममें सर्वथा धूमपना नहीं है पौगलिकपना या कंठ, आंखमें विक्षेप करा देना भी धर्म वहां विद्यमान हैं । धूम सर्वथा अग्निको ही नहीं साधता है उण